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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान श्रुतस्कन्ध है। उसके पाँच वर्ग है । निरयावलिकासूत्र के योग की विधि निम्नांकित है :
प्रथम दिन :- प्रथम दिन योगवाही आयम्बिल-तप, नंदीक्रिया एवं एक काल का ग्रहण करे। यह क्रिया निरयावलिका के श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग एवं उसके आदि के पाँच एवं अन्त के पाँच ऐसे दसों अध्ययनों के वांचन के उद्देश्य से की जाती है। तत्पश्चात् वर्ग तथा आदि के पाँच एवं अन्त के पाँच ऐसे दसों अध्ययनों के समुद्देश की क्रिया करे । पुनः वर्ग तथा आदि के पाँच एवं अन्त के पाँच ऐसे दसों अध्ययनों के अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही दस बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, दस बार द्वादशावर्त्तवंदन करे, दस बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करे एवं दस बार कायोत्सर्ग करे ।
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द्वितीय दिन : द्वितीय दिन योगवाही नीवि तप एवं एक काल का ग्रहण करे। यह क्रिया द्वितीय वर्ग तथा उसके आदि के पाँच एवं अन्त के पाँच - ऐसे दसों अध्ययनों के वांचन के उद्देश्य से की जाती है । तत्पश्चात् द्वितीय वर्ग तथा उसके आदि के पाँच एवं अन्त के पाँच - ऐसे दसों अध्ययनों के समुद्देश की तथा अनुज्ञा की क्रिया क्रमशः करे ।
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इस प्रकार तीसरे दिन से लेकर पाँचवें दिन तक कालग्रहण एवं क्रमशः आयम्बिल, नीवि-तप के द्वारा तीसरे वर्ग से लेकर पाँचवे वर्ग के तथा उनके अध्ययनों के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ नौ-नौ बार करे ।
छठवें दिन :- छटें दिन योगवाही आयम्बिल-तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा निरयावलिका के श्रुतस्कन्ध के समुद्देश की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ एक - एक बार करे ।
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सातवें दिन :- सातवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप, नंदीक्रिया एवं एक काल का ग्रहण करे तथा श्रुतस्कन्ध के
अनुज्ञा
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