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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधा ग्यारहवें दिन :- ग्यारहवें दिन योगवाही आयम्बिल-तप, नंदीक्रिया एवं एक काल का ग्रहण करे तथा श्रुतस्कन्ध के समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ तीन-तीन बार करे ।
इस प्रकार विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के योग में कुल ग्यारह दिन एवं दो नंदी होती हैं। यह अनागाढ़ योग है। इसके यंत्र का न्यास इस प्रकार है :
विपाकश्रुतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के योग में :- काल - ११, दिन- ११, नंदी - २, अनागाढ़ योग
३ ४
५ ६ ७
३
४
५
६ ७
काल
अध्ययन
काउसग्ग
१
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प्र. श्रु.उ.
अ. - १
२
२
५ ३
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अब विपाकश्रुतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के योग की विधि इस प्रकार है :
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प्र. श्रु.
स.अ.
नं.आं.
३
प्रथम दिन :- प्रथम दिन योगवाही आयम्बिल-तप, नंदीक्रिया एवं एक काल का ग्रहण करे तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के उद्देश की क्रिया करे। इसके साथ ही योगवाही प्रथम अध्ययन के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया भी करे । इसकी क्रियाविधि में योगवाही चार बार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, चार बार द्वादशावर्त्तवंदन करे, चार बार खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करे एवं चार बार कायोत्सर्ग करे ।
द्वितीय दिन : - दूसरे दिन योगवाही नीवि तप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा द्वितीय अध्ययन के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ तीन-तीन बार करे ।
इस प्रकार तीसरे दिन से लेकर दस दिनों तक कालग्रहण एवं क्रमशः आयम्बिल, नीवि - तप के द्वारा तीसरे अध्ययन से लेकर दस
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