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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान ग्रन्थ की वाचना आदि में गुरु की आज्ञा के सूचक है। समुद्देश भी उसी की विशेष आज्ञा रूप है और अनुज्ञा उस कार्य को उसी समय शीघ्र करने या कराने का आदेश है । इन सभी स्थितियों में तीन बार निःसंशयतः कहने का उद्देश है। त्रिवाचकत्व विशेष रूप से शकुन, गुरु का आदेश और राजा का आदेश- भावों को दृढ़ीभूत करता है ।
अंगशास्त्रों के श्रुतस्कन्ध अध्ययन उद्देशक आदि को दिवस के प्रथम पाद, अर्थात् प्रथम प्रहर में पढ़े। मध्य प्रहर में न पढ़े। इसी प्रकार मध्याहून और रात्रि में भी न पढ़े। अंगबाहूय के अध्ययन उद्देशक आदि का स्वाध्याय रात्रि में भी होता है। योग दो प्रकार के होते हैं :- आगाढ़योग और अनागाढ़योग । जिसमें एक योग को समाप्त करके या उसको पूर्ण करके अथवा उसे पूर्ण किए बिना अन्य योग में प्रवेश होता है, वह आगाढ़योग है और जिसमें कालग्रहण, खमासमणा आदि की क्रिया समाप्त होने पर तथा दिन पूर्ण होने पर उस योग को बीच में अपूर्ण छोड़कर अन्य योग में प्रवेश नहीं होता है, वह अनागाढ़योग है। उत्तराध्ययन, प्रश्नव्याकरण, आवश्यक, दशवैकालिक, भगवती, महानिशीथ के योग आगाढ़योग हैं और शेष आगमों के योग अनागाढ़योग हैं। वहाँ नंदीसूत्र में कहे गए क्रम से या पाक्षिक सूत्र में कहे गए क्रम से दशवैकालिक से लेकर महाप्रत्याख्यान तक के ग्रन्थ उत्कालिक है, उनमें न तो कालग्रहण का विचार होता है, और न संस्पर्शन ( संघट्ट) आदि का विचार होता है। उत्तराध्ययन से लेकर निशीथ (निसर्ग ) तक के ग्रन्थ कालिक हैं । उनमें स्वाध्याय प्रस्थापन हेतु कालग्रहण, संस्पर्शदोष (संघट्ट) आदि सब बातों का विचार होता है। शेष क्रियाएँ जैसे नंदी, खमासमणा, उद्देश आदि कालिक और उत्कालिक - दोनों प्रकार के योगों के समान ही हैं । अब कालिक ग्रन्थों के योग के उपयोगार्थ कालग्रहण की विधि और स्वाध्याय प्रस्थापनविधि वर्णित की जा रही है - पूर्व में कही गई शुद्ध वसति में पूर्व और उत्तर दिशा में एक-एक कालमण्डल ( अध्ययन - क्षेत्र) परिणत खटिका से या परिमार्जन मात्र से बनाए । प्रातःकालीन कालमण्डल में स्थापनाचार्य पश्चिम दिशा में रखे तथा कालग्रहण पूर्व दिशा में करे । व्याघातिक संध्याकाल के समय दक्षिण दिशा में स्थापनाचार्य रखकर उत्तर दिशा में कालग्रहण करे । अर्द्धरात्रि T
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