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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
!! सत्रहवाँ उदय !! ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण
यति आचार दुष्पालनीय एवं कठिन है। जैसा कि कहा गया है - “विवेकरहित पुरुष के लिए यतिधर्म का पालन करना दुष्कर है, जिसमें पांच महाव्रतों को वहन करना होता है, साथ ही रात्रि भोजन का त्याग होता है तथा देह के प्रति निर्ममत्व के भाव की साधना की जाती है। मुनि का आहार उद्गम, उत्पादन एवं गवेषणा के दोषों से रहित, अर्थात् शुद्ध होना चाहिए। उसे इर्या ( गमनागमन) आदि पांच समिति एवं तीन गुप्तियों और बारह प्रकार के तप की आराधना करनी चाहिए । हमेशा अनासक्त व ममत्व से रहित होकर निष्परिग्रहता के गुण में वास करना चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार मासिक आदि प्रतिमाओं और विभिन्न प्रकार के अभिग्रहों को धारण करना चाहिए । जीवनपर्यन्त स्नान का त्याग करना चाहिए एवं भूमि पर शयन करना चाहिए । केशलुंचन करना चाहिए तथा अपूर्व गुणों को धारण करने वाला होना चाहिए । क्षुधा, पिपासा आदि को सहन करते हुए सदा गुरुकुल में वास करना चाहिए। बाईस परीषहों और देव आदि के द्वारा प्रदत्त उपसर्गों को सहन करना चाहिए । लब्ध वस्तुओं के प्रति भी अनासक्ति की वृत्ति एवं अठारह हजार शीलांगों को धारण करना चाहिए । “यतिधर्म महत् तरंगों वाले समुद्र को अपनी भुजाओं से पार करने के समान है। वह यतिधर्म स्वादरहित बालुका के कवल को खाने के समान है । वह यतिधर्म अप्रमत्त रूप से तलवार की धार पर चलने के समान है, अथवा गंगा नदी में प्रवाह के विपरीत तैरने के समान है तथा मेरु पर्वत को तराजू में तोलने के समान कठिन है ।" यति को अकेले ही बिभीषीका एवं अन्य दुष्ट परिस्थितियों का सामना करना होता है । उपसर्ग और परीषहों को जीतना राधावेध के समान कठिन है । वह पूर्व में अग्रहित तीनों लोकों की विजयरूप पताका को ग्रहण करने के समान है। इस प्रकार से मुनि की प्रव्रज्या अतिदुष्कर कही गई है।
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