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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान दीक्षार्थी शिष्य गुरु के समीप आए। तत्पश्चात् खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! आप मुझे मुण्डित करे।" तब गुरु परमेष्ठीमंत्र पढ़कर सिर की शिखा को ऊपर उठाकर उसकी तीन लटों को ग्रहण करे, अर्थात् शिखा को ले और उसी के साथ जिनउपवीत भी उतरवा ले। फिर सम्यक्त्वसामायिक, श्रृतसामायिक, देशविरति सामायिक, सर्वविरति सामायिक आरोपण के लिए कायोत्सर्ग करना, चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करना, मुख से चतुर्विंशति स्तव का पाठ करना, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करना, वंदन करना आदि सब क्रियाएँ पूर्ववत् ही करे। फिर शिष्य खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे -"आप मुझे स्वेच्छापूर्वक सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरति-सामायिक तथा सर्वविरति सामायिक का आरोपण करे" गुरु कहे -"मैं आरोपण करता हूँ।" फिर तीन बार नमस्कारमंत्र पढ़कर शिष्य गरु के साथ सम्यक्त्वसामायिक-दण्डक का तीन बार उच्चारण करे। पुनः (शिष्य) उसी प्रकार उसी विधि से देशविरति-सामायिकदण्डक एवं सर्वविरति सामायिक-दण्डक का तीन-तीन बार उच्चारण करे सम्यक्त्वसामायिक, देशविरति सामायिक-दण्डक पूर्व में कहे गए अनुसार ही है। सर्वविरति-सामायिक-दण्डक इस प्रकार है - "हे भगवन् ! मैं सामायिकव्रत को ग्रहण करता हूँ, सभी पापकारी प्रवृत्तियों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करता हूँ। जीवनपर्यन्त मन, वाणी और शरीर के तीन योगों से पाप-व्यापार न तो करूंगा, न करवाऊंगा, न करते हुए का समर्थन करूंगा। हे भगवन् ! पूर्वकृत पापप्रवृत्तियों से मैं निवृत्त होता हूँ, उनकी निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्ववृत्ति का त्याग करता हूँ।"
जिसने पहले ही सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरति-सामायिक ग्रहण किया हुआ है, उसको सम्यक्त्वसामायिक, देशविरति-सामायिक आदि के दण्डक (पाठ) का उच्चारण न कराए और न वह पूर्व में कहे गए अनुसार सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरति-सामायिक के ग्रहण कराने का कथन करे। उसे मात्र एक सर्वविरति-सामायिक-दण्डक का उच्चारण पूर्व में कहे गए अनुसार कराए। जिस व्यक्ति ने पूर्व में सम्यक्त्व-सामायिक, श्रुत-सामायिक एवं देशविरति-सामायिक का उच्चारण नहीं किया हो,
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