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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान उसके द्वारा दी गई भिक्षा ग्राह्य है। इसी प्रकार गाय, मनुष्य आदि को कोई स्त्री भोजन दे रही हो, तो उस समय उसके हाथ से भिक्षा लेना नहीं कल्पता है इससे अतिरिक्त काल में वह भिक्षा कल्प्य हो सकती हैं। अस्थिर शिला, काष्ठ, पाटे आदि यदि अकल्पित द्रव्य से स्पृष्ट हो, तो उस शिलादि को स्पर्श करना नहीं कल्पता है, किन्तु यदि उनसे स्पृष्ट नहीं है तथा उनसे विहीन है, तो वह भिक्षा लेने योग्य है। यदि कभी भिक्षा के समय शुष्क अस्थि, चर्म, दन्त का स्पर्श हो जाए, तो पूर्व की भाँति कायोत्सर्ग करे। आहार का संग्रह करने से तथा कामातुर कुत्ता, बिल्ली, वृषभ, अश्व, मुर्गा, हाथी एवं नपुंसक तथा आधाकर्मी आहार के संस्पर्श से व्रत का उपघात होता है। इसी प्रकार उन्हें देखने आदि अन्य कारणों से भी व्रत का उपघात होता हैं। पात्र और उपकरण आदि में कणमात्र अर्थात् भोजन का अंश रहने से भी व्रत का उपघात होता है। सूखे प्रासुक हाथों से भिक्षा का ग्रहण करे। अप्रासुक जल से युक्त होने पर और उसका स्पर्श करने पर आधाकर्म दोष लगता है। व्याख्यान, पाठ, स्तुति आदि गुरु की आज्ञा से करे। साधक सम्यक् प्रकार से अनुप्रेक्षा, अर्थात् चिन्तन करे। एक के ऊपर एक चार पाँच बर्तन रखे हों, या उसी प्रकार कोई बर्तन ऊपर माले आदि पर रखा हो, या नीचे (तलघर) में रखा हो, तो उस बर्तन की वस्तु ग्रहण करने योग्य नहीं है। एक बर्तन के साथ दूसरा बर्तन रखा हो या वे तिर्यक् दिशा में किंचित दूरी पर रखे हुए हो तो उन बर्तनों से आहार ग्रहण करना उत्तम है। दो, तीन बर्तनों से ही भिक्षा ले, अधिक दूरी पर रखे बर्तनों से भिक्षा न ले। सूखा नारियल एवं द्राक्ष डालकर पकाया गया दूध (पायस), थोड़े से चावल
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१. ज्योति के बिना इसका अर्थ दीपक बिना ऐसा हो सकता हैं; स्पष्ट
समझ में नहीं आ रहा हैं। इस अपेक्षा से यदि दीपक न हो तो कल्प्य
बन सकता हैं। में दूध डालकर पकाई गई खीर, इसी प्रकार कांजी - ये सब उसी दिन के हों, तो लेना कल्पता है, किन्तु तिल का चूर्ण, तिल का पिण्ड, तिल का खोल दूसरे दिन ही लेना कल्पता है।
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