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आचारदिनकर ( भाग - २
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान प्रायश्चित्त के रूप में मुनि को आयम्बिल करना चाहिए। योगवाही को सिलाई, लेप करना तथा उपधि बनाने आदि कार्यो का भी त्याग करना चाहिए। सभी योगों में और विशेष रूप से आगाढ़ योगों में भी योगवाही को ये कार्य नहीं करने चाहिए। वह तांबा, सीसा, कास्य, लोहा, रांगा, रोम, नख, चर्म आदि का स्पर्श न करे और स्पर्श होने पर कायोत्सर्ग करे। इन धातुओं का स्पर्श न हो तो भी दिन में एक बार " दंत - ओहडावणीयं करेमि काउसग्गं" इस नाम से कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में मुनि को एक बार नमस्कार मंत्र का स्मरण करना चाहिए। योगोद्वहन के मध्य केश, रोम, नख आदि का कायोत्सर्ग नहीं करना चाहिए। सुबह के कायोत्सर्ग में भी यही विधि करनी चाहिए।
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प्रथम मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्तवन्दन करे । वन्दन करके फिर केश, रोम आदि का त्याग करे । उसके पश्चात् पूर्व में कही गई विधि के अनुसार कायोत्सर्ग करे । योगवाही प्रतिदिन हाथ जोड़कर रात्रिक एवं प्रातः कालीन प्रतिक्रमण के अन्त में नवकारसी का प्रत्याख्यान करे । नियमित रूप से नवीन पाठ का अध्ययन करे और पूर्व में पठित पाठ का विस्मरण न करे। उपधि, पात्र बन्ध आदि की दो बार प्रतिलेखना करे । अल्प बोले, व्यंगात्मक शब्दों तथा काम, क्रोध आदि का त्याग करे। दृढ़तापूर्वक, पंचमहाव्रत का पालन करे संघ या समुदाय का विरोध न करे। समय पर शुद्ध अन्न-पानी, वस्त्र और पात्र ग्रहण करे । पात्र में रहे हुए अन्न को न तो झूठा छोड़े और न वमन आदि करे। संस्तारक वस्त्र एवं आसन का अल्प मात्रा में परिग्रहण करे । अत्यन्त सावधानीपूर्वक कालग्रहण करके स्वाध्याय करे, अर्थात् स्वाध्याय में समय ध्यान रखें। अकाल में स्वाध्याय और कालग्रहण न करे असमय में अर्थात् रात्रिकाल में मल का उत्सर्ग न करे । अकृत योगी के द्वारा लाया हुआ आहार- पानी ग्रहण नहीं करे। उनका संघट्टा (साथ-साथ भिक्षाचर्या आदि ) नहीं करे और न उनके पाट, शय्या एवं आसन आदि का आश्रय ले । साथ ही उनके द्वारा वस्त्र और शय्या का प्रतिलेखन भी नहीं करवाएँ।
शरीर की चिकित्सा ( रोग निर्मूलन उपाय ) न करे और न अन्य से करवाए। वर्षा एवं महावायु के समय भिक्षा आदि के लिए न जाए। सभी प्रकार के योगों में सामान्यतः यही चर्या बताई गई है।
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