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आचारदिनकर (भाग-२)
__ जैनमुनि जीवन के विधि-विधान इसी प्रकार क्षुल्लकों के क्षुल्लकाचार का विवेचन करे। वह इस प्रकार
"जिनकी आत्मा संयम में सुस्थित हैं, जो बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह से विमुक्त हैं तथा जो स्व-पर आत्मा के त्राता हैं, उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये (निम्नलिखित) अकल्प्य हैं :
औद्देशिक-निर्ग्रन्थ के निमित्त बनाया गया, क्रीतकृत-निर्ग्रन्थ के निमित्त खरीदा गया, नित्याग्र-आदरपूर्वक निमन्त्रित कर प्रतिदिन दिया जाने वाला, अभिहत-निर्ग्रन्थ के निमित्त दूर से सम्मुख लाया गया आहार आदि लेना, रात्रिभक्त-रात्रि भोजन करना, स्नान-न्हाना, गंध-गंध सूंघना या गन्धद्रव्य का विलेपन करना, माल्य-माला पहनना, बीजन-पंखा झलना, संनिधि-खाद्य वस्तु का संग्रह करना, रातवासी रखना, गृहिअमत्र-गृहस्थ के पात्र में भोजन करना, राजपिण्डमूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना, किमिच्छक-कौन क्या चाहता है ? इस तरह पूछ कर दिया जाने वाला राजकीय भोजन आदि लेना। संबाधन-अंगमर्दन करना, दंत प्रधावन-दाँत पखारना, संप्रच्छन-गृहस्थ को कुशल पूछना, देह प्रलोकन-दर्पण आदि में शरीर को देखना, अष्टापद-शतरंज खेलना, नालिका- नलिका से पासा डाल कर जुआ खेलना, छत्र-विशेष प्रयोजन के बिना छत्र धारण करना, चैकित्स्य-रोग का प्रतिकार करना, चिकित्सा करना, उपानत्-पैरों में जूते पहनना, ज्योतिःसमारम्भ-अग्नि जलाना, शय्यातर पिण्ड-स्थान दाता के घर से भिक्षा लेना, आसंदी-मंचिका, पर्यंक-पलंग पर बैठना, गृहान्तर निषद्या - भिक्षा ग्रहण करते समय गृहस्थ के घर पर बैठना, गात्र उद्वर्तन-उबटन करना, गृहि-वैयावृत्य- गृहस्थ को भोजन का संविभाग देना, गृहस्थ की सेवा करना, आजीववृत्तिता-जाति, कुल, गण, शिल्प और कर्म का अवलम्बन ले भिक्षा प्राप्त करना, तप्तानिवृतभोजित्व-अर्द्धपक्व सजीव वस्तु का उपभोग करना, आतुरस्मरण-आतुर दशा में भुक्त भोगों का स्मरण करना, अनिवृत मूलक-सजीव मूली, अनिवृत श्रृंगबेर-सजीव अदरक, अनिवृत इक्षुखण्ड-सजीव इक्षुखंड, सचित्त कंद-सजीव कंद, सचित्त मूल-सजीव मूल, आमल फल-अपक्व फल और आमक बीज-अपक्व बीज लेना व खाना।
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