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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान एवं तीन योग से करता हूँ, अर्थात् मैं मन से, वचन से, काया से न तो स्वयं रात्रि भोजन करूंगा, न करवाऊंगा और न किसी रात्रि भोजन करने वाले का अनुमोदन करूंगा।"
“हे भगवन् ! मैं अतीत में किए गए रात्रि भोजन से निवृत्त होता हूँ। उसकी निंदा करता हूँ, गर्हा करता हूँ एवं उसके प्रति ममत्ववृत्ति का त्याग करता हूँ ।" यह प्रतिज्ञा तीन बार करे “हे भगवन् ! मैं छटें व्रत की साधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ । इसमें सब प्रकार के रात्रि भोजन से विरत होना होता है । "
फिर लग्नवेला के आने पर निम्न गाथा को तीन बार उच्चारित करे " इस प्रकार मैं इन पाँच महाव्रतों और छठे रात्रि - भोजन विरमण - व्रत को आत्महित के लिए अंगीकार करके उपसम्पदा ग्रहण करता हूँ ।"
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तत्पश्चात् गुरु पुनः वासक्षेप आदि अभिमंत्रित करके साधुओं, श्रावकों आदि को दे। फिर शिष्य खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे "हे भगवन् ! आप इच्छापूर्वक मुझे महाव्रतादि का आरोपण कराएं।" इस प्रकार खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन कर गुरु-शिष्य के कथन पूर्व में कही गई महाव्रतों की आरोपण - विधि के अनुसार ही करे । अन्त में खमासमणासूत्र से वंदन करने के पश्चात् साधु-साध्वी आदि शिष्य के सिर पर वासक्षेप और अक्षत डालें। तत्पश्चात् “ आरोपण किए गए पंचमहाव्रतों में स्थिर होने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।" ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके, प्रकट रूप में चतुर्विंशतिस्तव बोले । फिर बैठकर शक्रस्तव का पाठ करे । तत्पश्चात् शिष्य गुरु की तीन प्रदक्षिणा करके वन्दन करे । इसी प्रकार अन्य निर्ग्रन्थ साधुओं को भी उनके दीक्षा पर्याय के क्रम से वन्दन करे । तत्पश्चात् यहाँ उसके आचार्य, उपाध्याय आदि की नियुक्ति की जाती है । इसी उपस्थापना - विधि द्वारा साध्वी का भी महाव्रतारोपण करे तथा यहाँ उसकी महत्तरा, प्रवर्तिनी आदि की नियुक्ति करे ।
इसके बाद नव उपस्थापित शिष्य के गण, कुल, शाखा, आचार्य, उपाध्याय एवं नाम की उद्घोषणा करे। जैसे
कोटिकादि
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