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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान हो तथा जो स्वाध्याय, आवश्यकक्रिया, भिक्षाचर्या और विहार नहीं कर सके, अर्थात् उसमें असमर्थ हो। चौर्यकर्म करने वाला, जो राजा आदि के निग्रह से भयभीत होकर व्रत की आकांक्षा रखता हो, उसे चोर (स्तेन) कहा गया है। ऐसा पुरुष जिसने राजा का अपराध किया हो, उसे राजापकारी, अर्थात् राजद्रोही कहते हैं। उन्मत्त, अर्थात् वह व्यक्ति जो भूत, वायु आदि के दोषों से युक्त होकर, जिसने उन्मत्तता को प्राप्त किया है। अदर्शन, अर्थात् वह व्यक्ति जिसने मिथ्यात्व का ग्रहण कर सम्यक्त्व का वमन (त्याग) कर दिया है, साथ ही जो अन्धा है, उसे भी अदर्शन कहा गया है। दास, अर्थात् वह व्यक्ति जो मूल्य (धन) देकर खरीदा गया हो, उसे दास कहा गया है। दुष्ट, अर्थात् वह व्यक्ति जो तीव्र कषायवाला एवं परस्त्री में अत्यन्त आसक्त हो, अर्थात जो विषय-भोग एवं तीव्र कषाय से युक्त हो, उसे दृष्ट कहा गया है। मूढ़, अर्थात् वह व्यक्ति जो उचित-अनुचित का विचार नहीं कर पाए, अथवा जो परमात्मा आदि के नाम-स्मरण में भी रुचि नहीं रखता हो, उसे मूढ़ कहते हैं। जो अनेक लोगों के ऋण से युक्त हो, अर्थात् कर्जदार हो, उसे ऋणात कहा गया है। हुंगित (जुंगित) दो प्रकार के होते हैं : जातिजुंगित और कर्मजुंगित। जातिगँगित से तात्पर्य नीच जाति से है। कारुक (शिल्पी), नीच जाति में उत्पन्न या माता-पिता की शुद्धि के बिना उत्पन्न, अर्थात् अनाथ, वेश्या और दासियों के पुत्रों को जातिगँगित कहा जाता है। कर्मजुंगित का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जो ब्रह्महत्या आदि करने वाला महापापी है। “हुंगि बुगि वर्जने", इस धातु से पशु-पक्षी की हिंसा करने वालों को भी इसी में शामिल किया गया है। अवबद्ध, अर्थात् जो व्यक्ति दूसरों का धन लेकर मास, वर्ष आदि तक सेवा के लिए वचनबद्ध है, उसे अवबद्ध कहते हैं। भृत्य, अर्थात् जो वस्त्र, भोजन, मूल्य के द्वारा किसी अन्य का दास बना हुआ हो, उसके भृत्य कहते हैं। शैक्षनिस्फेटिक, अर्थात् माता-पिता, गुरु (वृद्धजनों), महत्तर (आदरणीय) व्यक्तियों की अनुमति के बिना जबरदस्ती दीक्षा ग्रहण करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को शैक्षनिस्फेटिक कहते हैं - ये अठारह प्रकार के पुरुष दीक्षा के लिए अयोग्य हैं, अर्थात् वर्जित किए गए हैं।
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