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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान हो - ये दस प्रकार के नपुंसक चित्त से संक्लिष्ट होने के कारण प्रव्रज्या के लिए अयोग्य हैं। यहाँ दस प्रकार के कृतसंभोग तथा पुंवेदोदय (स्त्री के सेवन की काम-वासना) से युक्त पुरुषों को भी नपुंसक क्यों कहा गया है ? आगम में कहा गया है - "अत्यन्त और अनुचित कामवासना का जो पुरुष सेवन करते हैं, उन सबको नपुंसक जानना चाहिए।" तत्त्वार्थसूत्र की टीका में विकृत रूप से काम-सेवन हेतु अन्य पर आसक्ति रखना पुरुषत्व नहीं है, अतः दस प्रकार के नपुंसकों को दीक्षा के लिए वर्जित किया गया है। तृतीय प्रकार के नपुंसक का वर्जन क्लीब के रूप में किया गया है, जो दीक्षा के अयोग्य पुरुषों में वर्णित है।
- दीक्षा के लिए अयोग्य विकलांग इस प्रकार हैं -- हाथ, पाँव, नाक, कान, होठ रहित, वामन, वडभ, कुब्ज, पंगु, लूला और काणा - ये सब विकलांग दीक्षा के लिए अयोग्य हैं। दीक्षा लेने के बाद यदि कोई विकलांग हो जाता है, तो उसे आचार्य पद नहीं दिया जाता है। यदि आचार्य विकलांग हो जाए, तो उनके स्थान पर योग्य शिष्य को आचार्य पद का दायित्व दिया जाता है और विकलांग आचार्य को चुराए हुए महिष की तरह गुप्त स्थान में रखा जाता है।
जन्म से, या जन्म के बाद हाथ, पाँव, नाक, होठ से रहित, वामन, वडभ, कुब्ज, पंगु, लूला और काणा ये सब व्यक्ति प्रव्रज्या के योग्य नहीं होते हैं। यहाँ वडभ का तात्पर्य संकुचित हाथ-पैर वाले व्यक्ति से है। शेष विकलांग के प्रकारों का भावार्थ सामान्यतः सभी जानते हैं। कदाचित् निरोग शरीर वाला व्यक्ति दीक्षा ले और समय बीतने पर हस्तहीन आदि दोषों को प्राप्त हो जाए, तो उसमें आचार्य के सभी गुण होने पर भी वह आचार्य पद के लिए अयोग्य माना जाता है। काणा (एक आँख से रहित) आदि दोषों से युक्त शिष्य को व्रती ही रखें, पद पर आरोपित न करे - यह दीक्षा-अधिकार है।
पूर्व में बताए गए इन दोषों से रहित, मृदु, सरल, क्षमावान्, शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, आस्तिक्य आदि गुणों से युक्त व्यक्ति दीक्षा के योग्य होता है। जैसा कि आगम में कहा गया है - "शुद्ध जाति, कुल, रूपवाला, शान्त, धीर, प्रसन्न चित्त वाला पुरुष प्रव्रज्या के योग्य होता है।"
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