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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान सभी व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत अत्यन्त दुष्कर है। जैसा कि आगम में कहा गया है, जिस तरह इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय, कर्मों में मोहनीयकर्म एवं गुप्ति में मनगुप्ति अत्यन्त कठिन है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना दुष्कर कहा गया है। दूसरे सिद्धांतों में भी कहा गया हैं - "सभी व्रतों और कमों का मूल ब्रह्मचर्यव्रत को कहा गया है। ब्रह्मचर्य के भग्न से सभी व्रत निरर्थक हैं। ब्रह्मव्रत को दुष्कर माना गया है, क्योंकि ऐसा भी कहा गया है -
महाविषम रणभूमि में उग्र खड्ग को धारण करने वाले तो अनेक दिखाई देते हैं, परन्तु विषयों में अनासक्त, धीर, गंभीर पुरुषों का प्रायः अभाव ही रहता है। सिंह के पौरुष का मर्दन करने वाले तथा हाथियों के मद को गलित करने वाले अनेक हो सकते हैं, किन्तु कंदर्प एवं दर्प को नष्ट करने वाले कुछ विरले ही सत्पुरुष होते हैं। इस ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने का अधिकारी कौन हो सकता है - यह बताते हुए कहा गया हैं - "शुद्ध सम्यक्त्वपूर्वक द्वादशव्रत आचार का पालन करने वाला, चैत्य एवं जिनबिंब का निर्माण कराने वाला, जिनागम एवं चतुर्विध संघ की सेवा हेतु प्रचुर धन का व्यय करने वाला, भोग-अभिलाषा से पूर्ण सन्तुष्ट, उत्कृष्ट वैराग्यभावना से वासित, गृहस्थ के सम्पूर्ण मनोरथों को धारण करने वाला, शान्तरस में निमग्न, कुल की वृद्धाओं, पुत्र, पत्नी, स्वामी आदि के द्वारा अनुज्ञा प्राप्त एवं प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्सुक श्रावक ही ब्रह्मचर्यव्रत को धारण करने के योग्य होता है। उस ब्रह्मचर्यव्रत धारण की विधि यह है :
सर्वप्रथम शान्तिक-पौष्टिक कर्म करे, गुरूपूजा एवं संघपूजा करे, पश्चात् प्रव्रज्या हेतु उपयुक्त मुहूर्त के आने पर मुण्डित सिर एवं शिखासूत्र को धारण किए हुए वह श्रावक विवाह-उत्सव की भाँति महोत्सवपूर्वक पूर्व निर्दिष्ट गुणों से युक्त गुरु के समीप जाए। वहाँ गुरु नंदीपूर्वक सम्यक्त्वसामायिक, देशविरतिसामायिक का आरोपण पूर्ववत् कराए। चैत्यवंदन, दण्डक-उच्चारण, खमासमणा, आदि की क्रियाएँ भी पूर्ववत् करे, फिर उन सब क्रियाओं से निवृत्त होकर गुरु, श्रावक के तीन बार नवकार मंत्र पढ़ने के बाद यह दण्डक उच्चारण कराए अर्थात् यह प्रत्याख्यान कराएँ - हे भगवन् ! मैं सामायिक व्रत
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