Book Title: Gyananand Shravakachar
Author(s): Raimalla Bramhachari
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
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________________ वंदनाधिकार रहते हैं / शरीर भिन्न है तथा अरिहन्त का आत्मद्रव्य भिन्न है, उन (अरिहन्त देव) को मैं अंजुली (हाथ) जोड कर नमस्कार करता हूँ। अरिहन्त परम वीतराग देव और कैसे हैं ? अतीन्द्रिय आनन्द रस का पान करते हैं तथा आस्वादन करते हैं / उनके सुख की महिमा हम कह सकने में समर्थ नहीं हैं , परन्तु छद्मस्थों की जानकारी के लिये ऐसी उपमा संभव है। ___ तीन काल सम्बन्धी बारहवें गुणस्थानवर्ती शुद्धोपयोगी महामुनियों के आत्मिक सुख से भी अनन्त गुणा सुख केवली भगवान को एक समय मात्र में होता है, परन्तु केवली भगवान के सुख की जाति भिन्न प्रकार की है। इन्हें तो अतीन्द्रिय क्षायिक सम्पूर्ण स्वाधीन सुख है और छद्मस्थ के इन्द्रिय जनित पराधीन अल्प सुख है - ऐसा निसंदेह है / __केवलज्ञानी और कैसे हैं ? केवल एक निज स्वच्छ ज्ञान के पुंज हैं / उसमें और भी अनन्त गुण भरे हैं। पुनः तीर्थंकर देव और कैसे हैं ? अपने उपयोग को अपने स्वभाव में ही लीन कर दिया है, जैसे नमक की डली (टुकडा) पानी में गल (घुल) जाती है वैसे ही केवली भगवान का उपयोग स्वभाव में ही लीन हो गया है तथा फिर नियमरूप से (वह उपयोग) बाहर निकलने में असमर्थ है एवं आत्मिक सुख में अत्यन्त रत हैं / उसका रस पीते तृप्त नहीं होते हैं अर्थात अत्यन्त तृप्त हैं / उनके शरीर की सौम्यदृष्टि ध्यानमय अकंप आत्मिक प्रभाव से शोभित है, मानों भय जीवों को उपदेश ही दे रही हो / क्या उपदेश दे रही है ? हे भव्य जीवो ! इसप्रकार ही अपने स्वरूप में लग जाओ, विलम्ब मत करो, ऐसा शान्त रस पीओ / इसप्रकार संकेत करके भव्य जीवों को अपने स्वभाव में लगाती है। इस निमित्त को पाकर अनेक जीव संसार समुद्र से पार हुये हैं / अनेक जीव भविष्य में पार होंगे तथा वर्तमान में पार