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बौद्ध मत में द्रव्य एवं सृष्टिः
महात्मा बुद्ध से जब इस प्रकार के जीव-जगत् विषयक प्रश्न किये जाते थे६३, तब वे उन्हें अव्याकृत कहकर मौन ही रहते थे।
बुद्ध कहते थे ये प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं, न ही धर्मयुक्त । इनका ज्ञान न तो ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक है और न निर्वेद के लिए; इनसे न विराग होता है; न दुःखनिरोध; न शान्ति प्राप्त होती हैं न अभिज्ञा; न संबोधि प्राप्त होती है और न निर्वाण, अतः इन्हें अव्याकृत कहा है।६४ ... तथागत आगे कहते हैं “कुछ श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवाद को मानते हैं, कुछ उच्छेदवाद को, कुछ अंशतः दोनों को मानते हैं। ये सब इन्हीं प्रश्नों में उलझकर रह जाते हैं। मैं भी इनको जानता हूँ, प्रत्युत ज्यादा जानता हूँ, परन्तु जानने का अभिमान नहीं करता, अतः तथागत निर्वाण का साक्षात्कार करते हैं।” ६५ : ... बुद्ध ने आगे यह भी कहा कि जो लोक (संसार) आदि का विवेचन करते हैं क्या उन्होंने उस लोक का साक्षात्कार किया है? अगर नहीं, तो क्या उनका वचन अप्रमाणिक नहीं होगा?६६ - बुद्ध ने तो यहाँ तक कहा कि जो इन अव्याकृत प्रश्नों में उलझकर रह जाता है वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।६७
नागार्जुन समग्र व्यावहारिक धारणाओं की परीक्षा करके यही निर्णय लेते हैं कि यह सब कुछ असत्य है; मात्र शून्यता ही सत्य है ।६८ सांख्य के अनुसार द्रव्य एवं सृष्टि:- .
सांख्य द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यह पुरुष और प्रकृति दोनों की सत्ता स्वीकार करता है। इसके अनुसार 'कार्य' कारण में विद्यमान होता है। कारण की ६३. दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त, ९ ६४. दीघनिकाय, पोट्टपादसुत्त, ९ . .
. ६५. दीघनिकाय, ब्रह्मजालसुत्त, १ . ६६. दीघनिकाय, पोट्ठपादसुत्त ६७. मज्झिमनिकाय ६३, चूलभालुक्यसुत्त ६४, दीघनिकाय९ ६८. न स्वती नाति परती..... भावा क्वचन केचन । - मध्यमकारिका-११
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