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इन्द्रिय से भिन्न आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है । "
यदि आत्मा का अस्तित्व भिन्न नहीं होता तो आँख से घड़ा देखकर आवश्यकतानुसार घड़े को ग्रहण करने में क्यों प्रवृत्ति होती है । ?१२
इसी प्रकार 'मैं' सुखी - दुःखी आदि का संवेदन आत्मा के अस्तित्व की ही अनुभूति कराते हैं । आत्मा के अस्तित्व को नकारना स्वयं के अस्तित्व को ही नकारना है ।
आत्मा प्रमाण सिद्ध है:
भारतीय दर्शन में चूँकि आत्मा सर्वोत्कृष्ट एवं महत्त्वपूर्ण प्रमेय रहा है अतः उसके संबन्ध में सभी दर्शनों ने अपने-अपने स्तर से विचार प्रस्तुत किये हैं। एक चिंतक है - चार्वाक, जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है । इसे भूतचैतन्यवाद कहते हैं । इसके विपरीत दूसरा चिंतन है - आत्मवाद ।
जैन दर्शन आत्मवादी है । चार्वाकदर्शन पृथ्वी, पानी, वायु और तेज के उचित अनुपात के मिश्रण से चैतन्य की उत्पत्ति मानता है । इन चार भूतों के अतिरिक्त पाँचवें किसी भी तत्त्व की मान्यता चार्वाक दर्शन में नहीं मिलती । षड्दर्शन समुच्चय की टीका में गुणरत्नसूर ने इसके प्रत्युत्तर प्रस्तुत किये हैं । गुणरत्नसूरि ने आत्मा को निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित किया है
गुणरत्नसूर के अनुसार आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होता है, अतः आत्मा को प्रत्यक्षसिद्ध मानना चाहिये । स्मृति, जिज्ञासा, आंकाक्षा, घूमने आदि की इच्छा इत्यादि आत्मा के गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव होता है। चूँकि गुण प्रत्यक्ष है, अतः गुणी भी प्रत्यक्ष है ।
जैसा कि चार्वाक दर्शन मानता है कि भूतचतुष्टय के मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न होता है, तो उनका मिश्रण करने वाला कोई तत्त्व भी तो होना चाहिए, और वह आत्मा के अतिरिक्त कौन हो सकता है? अगर कोई तत्त्व नहीं है तो घट-पट आदि जितने पदार्थ हैं उन सभी को चैतन्ययुक्त होना चाहिए क्योंकि भूतों की
१९. वही ४९.१५९
१२. वही ४९. १६०
१३. षड्दर्शन समु. टी. ४९. १२०
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