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अन्तर है । Sky तो वह है जो पुद्गल के रूप में विवेचित किया है अर्थात् रंगबिरंगा दिखता है और रिक्त सथान Space है।
आकाश का उपकार है- धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल को अवाह देना ।५१
धर्म और अधर्म आकाश का अवगाहन करके रहते हैं, यह एक औपचारिक प्रयोग है। जिस तरह हंस जल का अवगाहन करके रहता है, यह इस तरह का . मुख्य प्रयोग नहीं है। आधार और आधेय में जहाँ पौर्वापर्य संबन्ध हो, वह मुख्य प्रयोग होता है। संपूर्ण लोकाकाश धर्म और अधर्म की व्याप्ति है ।५२ ..
धर्मास्तिकायादि को अवगाहन देने वाला लोकाकाश है, ५२ परन्तु आकाश का अपना कोई आधार नहीं है, क्योंकि आकाश से बड़ा कोई द्रव्य नहीं है जिसमें आकाश आधेय बन सके। अतः यह अनन्त आकाश स्वप्रतिष्ठ है। आकाश का आधार अन्य, फिर उसका कोई अन्य आधार मानने में अनवस्था होती है।५४ केवल अवस्था के भय से ही अन्य आधार का निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है।
एवंभूतनय की दृष्टि से सारे द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं, इनमें आधार-आधेय भाव नहीं है। व्यवहार नय से आधार-आधेय की कल्पना होती है । व्यवहार से ही वायु का आकाश, जल का वायु, पृथ्वी का जल, सभी जीवों का पृथ्वी, जीव का अजीव, अजीव का जीव, कर्म का जीव और जीव का कर्म, धर्म-अधर्म तथा काल का आकाश आधार माना जाता है। परमार्थ से तो वायु आदि समस्त स्वप्रतिष्ठित हैं।५५ .. धर्म और अधर्म को भी आकाश ही अवगाहन देता है, परन्तु इनमें पौर्वापर्य संबंध नहीं है, जैसा कुण्ड और बोर में है। इनका संबन्ध शरीर और हाथ जैसा है।
५०. पदार्थ विज्ञान पृ. १६८ ले. जिनेंद्र वर्णी ५१. सभाष्यतत्त्वार्थधिगम सूत्र ५.१८ पृ. २६२ ५२. त.रा.वा. ५.१८.२.४६६ ५३. लोकाकाशेवगाहः त.सू. ५.१२ ५४. त.रा.वा. ५.१२.२-४, ४५४ ५५. वही ५.१२.५, ६, ४५४, ५५
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