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में मान्य हैं । ये आकर्षित होने और आकर्षित करने की शक्ति से युक्त हैं।
इन परमाणुओं में से एक वर्गजिसे जैनसिद्धान्त में कार्मण वर्गणा कहते हैं, आत्मा की क्रियाओं से आकृष्ट होकर आत्मप्रदेशों से एकक्षेत्रावगाह रूप में चिपक जाते हैं जिन्हें शुद्ध क्रिया के अभाव में अलग नहीं किया जा सकता। इन पुद्गल परमाणुओं के सम्मिश्रण की अवस्था में आत्मा को एक अपेक्षा से पदल भी कहा जाता है। पुद्गल की संयोगावस्था आत्मा को अशुद्ध बना देती है और यह अशुद्धावस्था जब तक समाप्त नहीं होती तब तक आत्मा अपने स्थायी आवास सिद्धपद को उपलब्ध नहीं करती। जैनदर्शन के प्रतिपादन का केन्द्रबिन्दु जीव है :
जैनदर्शन का एक मात्र लक्ष्य है जीव; जीव को जानना, उसे समझना और उसकी संपूर्ण शुद्धि के प्रयास करना। अजीव का स्वरूप और परिचय देने का कारण भी जीव ही है। जब हम यह समझ लें कि जीव क्या है और अजीव क्या है? तभी अजीव से जीव को मुक्त करने का पुरुषार्थ कर सकते हैं। जब तक उसका संपूर्ण परिचय प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक जीव को अजीव से मुक्त नहीं कराया जा सकता।
जितना सूक्ष्म वर्गीकरण जैनदर्शन ने जीव का किया है, अन्य दर्शन नहीं कर पाये और इसी वर्गीकरण के कारण जैनदर्शन की अहिंसा भी उतनी ही सूक्ष्म होती गयी।
जीव का अपना मूल स्वभाव है समता, सरलता और विरक्ति । यह ठीक वैसे ही है जिस प्रकार 'जल' मूल स्वभाव से शीतल है, परन्तु आग के संयोग के कारण गर्म होता है और कृत्रिम साधनों से अलग होते ही पुनः मूल स्वरूप में स्थिर बन जाता है।
यहाँ यदि यह प्रश्न उठाया जाये कि जीव में कर्म का संयोग कब से है, तो इसका समाधान यही है कि अनादि से। जिस प्रकार खान का सोना कब अशुद्ध बना- इसका उत्तर समायवधि के रूप में नहीं दिया जा सकता, वैसे ही आत्मा का कर्म-संयोग कब बना, इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। हाँ इतना निश्चित है कि एकबार शुद्ध होने के बाद पुनः वह अशुद्ध नहीं होता।
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