Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 277
________________ इस परमाणु को विज्ञान अभी तक खोज नहीं पाया है । क्योंकि विज्ञान का परमाणु विभिक्त होता है, जबकि जैनदर्शन का परमाणु विभक्त नहीं होता । समस्त भौतिक तत्त्वों का मुख्य आधार परमाणु ही है । यह परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होता है, इसे न इन्द्रिय द्वारा देखा जा सकता है और न यन्त्र द्वारा। इसे तो मात्र परमात्मा की वाणी द्वारा जाना जा सकता है । जब अनेकों परमाणु एकत्रित होते हैं तभी वे स्कन्ध कहलाते हैं और हमारे दृष्टिपंथ में अवतरित होते हैं । 1 वैशेषिक दर्शन में परमाणुवाद मुख्य विषय है । वे चारों जातियों के अलग-अलग परमाणु मानते हैं । प्रत्येक में गुणों की भी अलग-अलग कल्पना करते हैं, जैसे पृथ्वी परमाणु में मात्र गन्ध-गुण, जल में मात्र रस-गुण, अग्नि के परमाणु में मात्र रूप- गुण, वायु में मात्र स्पर्श - गुण, परन्तु उनकी यह मान्यता विज्ञान द्वारा भी खंडित हो जाती है । आज यह प्रमाणित तथ्य है कि पृथ्वी हो या जल - ये इलेक्ट्रोन और प्रोटोन के मिश्रण से ही बने हैं और दोनों के मूल में भी परमाणु हैं । इस दृष्टि से मूल द्रव्य परमाणु ही ठहरता है। जैनदर्शन मूलतत्त्व परमाणु मानता है, परन्तु जैन दर्शन का यह परमाणु वैशेषिक की तरह कूटस्थ नित्य नहीं है, अपितु परिणामी नित्य है । जितने भी द्रव्य होते हैं, वे सभी परिवर्तनशील तो होते ही हैं । इन परमाणुओं के गुणों में भी तारतम्य होता रहता है, जैसे स्पर्श-गुण को लें । स्पर्शगुण में मुख्यतः चार बातें पायी जाती हैं - ठण्डा, गरम, चिकना, और रूखा। चिकने और रूखे पर हम दृष्टिपात करेंगे; क्योंकि इन्हीं के कारण बन्ध और मुक्ति है। चिकने से तात्पर्य आकर्षण और रूखेपन से तात्पर्य विकर्षण से है जिसे वैज्ञानिक प्रोटोन (आकर्षण) और इलेक्ट्रोन (विकर्षण) कहते हैं। 1 जीव का संसार इन पुलों का आत्मा से संयोग के कारण ही है । जीव मिथ्यात्वादि क्रियाओं से कर्म पुगलों को आकर्षित करता है और वे कर्म पुगल ही संसार का निर्माण करते हैं । मन, वचन और काय - इन पुगलों की ही देन है । जैनदर्शन ने श्वास को भी पुद्गल माना है । आकाश के प्रत्येक प्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु भरे पड़े हैं । परिणमनशील होने के कारण ये परमाणु स्वतः रूक्ष और स्निग्ध होते रहते हैं । ये रूक्ष और स्निग्ध रूपों में विभक्त परमाणु विज्ञान को प्रोटोन और इलेक्ट्रोन के रूप 1 २५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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