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सुखमा, सुखमा-दुखमा, सुखमा, सुखमा-सुखमा ये छह चक्रार होते हैं। अवसर्पिणी काल ठीक इसके विपरीत चलता है; इसलिए इसमें चक्रारों का क्रम विपरीत हो जाता है-सुखमा-सुखमा, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा और दुःखमा-दुःखमा।
वर्तमान में अवसर्पिणी का पाँचवाँ भाग चल रहा है, इसमें उत्तरोत्तर नैतिक तथा आध्यात्मिक शान्ति की हानि होती जा रही है। काल के ज्ञान की आवश्यकता :___ काल हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। हम मृत्यु को भी काल कहते हैं,१० जो वास्तव में व्यावहारिक काल है। प्रत्येक पदार्थ काल के आश्रित है। परिवर्तन या क्रिया जो कुछ भी होती है और जिसके कारण सृष्टि का सौंदर्य और संतुलन है, वह सारा काल का ही उपकार है। दैनिक, मासिक, वार्षिक नित्य, नैमित्तिक, व्यवहारिक और चारित्रिक क्रियाओं में हमें काल की उपयोगिता स्पष्ट प्रतीत होती है। अन्य दर्शनों में काल का विवेचन :
भारतीय दर्शनों में कालद्रव्य विषयक विवेचन किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है चाहे वह द्रव्य के रूप में हो या परिणाम के रूप में। आधुनिक विज्ञान ने भी दर्शनों के समकक्ष काल का विचार किया है। वैशेषिक दर्शन में काल :___ वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं, जिसमें काल भी एक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। वैशेषिक काल को आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं१२ तथा प्रत्यक्ष का विषय नहीं मानते । काल को ये भी सभी उत्पन्न पदार्थों के निमित्त कारण के रूप में स्वीकार करते हैं । १३
९. ठाणांग ६.२३.२४ १०. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. २९१ ११. भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७ १२. भारतीय दर्शन भाग १ डॉ. राधाकृष्णन् पृ. १८७-८८ १३. प्रशस्तपाद कृत पदार्थ धर्मसंग्रह पृ. २५
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