Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 273
________________ लोकाकाश और अलोकाकाश में विभाजन षड्द्रव्यसापेक्ष है: अवगाहन गुणवाला यह आकाश यद्यपि असीम और व्यापक है, परन्तु यह दृश्य जगत् न व्यापक है न असीम । जितने भाग में पदार्थ या द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोकाकाश और जहाँ मात्र आकाश ही उपलब्ध होता है, उसे लोकाकाश कहते हैं । इस लोकाकाश और अलोकाकाश के विभाजन से हमें यह नहीं समझना चाहिये कि आकाश खंडित हो गया। वास्तव में यह विभाजन काल्पनिक है, जिस प्रकार घड़े की अन्तः अवगाह को हम घटाकाश कहते हैं और उससे बाहर फैले हुए असीम आकाश को केवल आकाश कहते हैं, परन्तु इससे आकाश खंडित नहीं होता। असीम आकाश में यह लोक एक घट की भाँति ही समझना चाहिये। सीमा के अन्दर को लोक और उससे बाहर को अलोक समझना चाहिये। लोकाकाश और अलोकाकाश के मध्य किसी प्रकार की दीवार भी बनी हुई नहीं है। जहाँ जीवं और पुद्गल गमन और स्थिति कर सकें, वह लोक और उसके अतिरिक्त संपूर्ण अलोक है। लोकाकाश को भी तीन भागों में विभाजित करके संपूर्ण चराचर प्राणियों और लोकाग्र के भाग में मुक्त जीवों के स्थित रहने का आगमों में ज्ञानियों द्वारा प्रस्तुत स्पष्टीकरण उपलब्ध होता है। काल भी द्रव्य है: : 'काल' शब्द अत्यन्त प्राचीन है। अथर्ववेद में काल द्रव्य को नित्य · पदार्थ माना गया है, तथा इस नित्य पदार्थ से प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति स्वीकार की गयी है। जैनदर्शन की काल के संबन्ध में दो मान्यताएँ हैं। एक मान्यता काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है । दूसरी मान्यता काल को जीव-अजीव द्रव्य में ही समाहित कर लेती है। .. काल को दो भेदों में विभाजित किया गया है। व्यवहारकाल एवं निश्चयकाल । जिस प्रकार पदार्थों की गति और स्थिति में धर्म और अधर्मद्रव्य सहकारी कारण है, वैसे ही परिवर्तन का कारण काल है। जिसके कारण द्रव्यों में वर्तना होती है, यह निश्चयकाल है एवं पदार्थों में छोटापन-बड़ापन आदि व्यवहारकाल का सूचक है। व्यवहारकाल निश्चयकाल का पर्याय है। यह पदार्थ काल, जीव और पुद्गल के परिणाम से ही उत्पन्न होता है और इसी कारण व्यवहारकाल को जीव और पुद्गल के आश्रित माना गया है। कालद्रव्य को २४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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