Book Title: Dravya Vigyan
Author(s): Vidyutprabhashreejiji
Publisher: Bhaiji Prakashan

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Page 265
________________ अनेक पयायें होंगी परन्तु आत्मा का ध्रुवतत्त्व फिर भी वैसा ही रहेगा। पर्याय के परिवर्तन से आत्मा के ध्रुवत्व का परिवर्तन जैनदर्शन को मान्य नहीं है। इस उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के स्वरूप के स्पष्टीकरण में जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है। यदि स्याद्वाद को नहीं अपनाया होता तो जैनदर्शन भी उन्हीं आरोपों और दोषों से घिर जाता जो एकान्तवादी दर्शनों में आए हैं। महावीर ने स्याद्वाद के आधार पर ही सारी व्याख्याएं दीं। जब महावीर से पूछा गया-आत्मा नित्य है या अनित्य? तब महावीर ने कहा- अस्तित्व की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य । इस स्याद्वाद के कारण जैनदर्शन की आत्मा की कर्ता-भोक्ता विषयक व्याख्या भी सिद्ध हो गयी और असित्व की अनिवार्य शर्त परिणमन की समस्या भी हल हो गयी। अर्थक्रियाकारित्व तभी घटित होगा जब वस्तु नित्यानित्य होगी। केवल नित्य वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व मानने में दोष है। यदि हम नित्य वस्तु में अर्थक्रियाकारित्व स्वीकार कर लें तो प्रश्न होगा कि वह अर्थक्रिया क्रम से होगी या अक्रम से? यदि हम यह मानें कि क्रम से होगी तो यह तर्कसंगत नहीं लगेगा क्योंकि जब वस्तु समर्थ है तो वह एक ही क्षण में अर्थक्रिया क्यों नहीं कर लेती? जब वह समर्थ है तो काल अथवा अन्य सहकारी कारणों की प्रतीक्षा क्यों करेगी? यदि प्रतीक्षा करती है तो उसका सामर्थ्य आहत होता है। यदि हम यह मान लें कि जिस प्रकार समर्थ होते हुए बीज पृथ्वी, जल, वायु आदि के सहयोग से ही अंकुर को उत्पन्न करता है अन्यथा नहीं, इसी प्रकार नित्य पदार्थ समर्थ होते हुए भी सहयोगी कारणों के बिना अर्थक्रिया नहीं करता । तो फिर प्रश्न उठेगा कि वह सहकारी कारण नित्य पदार्थ का कुछ उपकार करते हैं या नहीं? यदि उपकार करते हैं तो यह उपकार पदार्थ से भिन्न है या अभिन्न है? यदि वह सहकारी कारण अभिन्न है तो वही अर्थक्रिया करता है नित्यपदार्थ नहीं। यदि सहकारी कारण नित्यपदार्थ से भिन्न है तो प्रश्न होता है कि सहकारी कारण और पदार्थ में क्या संबंध होता है? इन दोनों में संयोग संबन्ध २३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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