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लांचे उतना काल” समयरूप व्यवहार काल है।९०० ___ यह 'समय' अविभाज्य है और कालद्रव्य की सूक्ष्मातिसूक्ष्म पर्याय है। 'समय' उत्पन्न होता है और नष्ट भी। जैसे आकाश द्रव्य के भाग करना संभव नहीं है, वैसे ही 'समय' भी निरंश है। - यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि जब पुद्गल परमाणु शीघ्र गति द्वारा एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाता है, तब वह चौदह राजू तक आकाश प्रदेशों में श्रेणीबद्ध जितने कालाणु हैं, उन सबको स्पर्श करता है। अतः असंख्य कालाणुओं को स्पर्श करने से समय के असंख्य अंश होने चाहिए। इसका समाधन यह है कि कोई परमाणु एक समय में असंख्य कालाणुओं का उल्लंघन करके, लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच जाता है, वह परमाणु के विशेष प्रकार के परिणमन के कारण ही है। इससे समय के असंख्य अंश नहीं होते। जैसे अनन्त परमाणु का कोई स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश में समाकर परिमाण में एक परमाणु जितना ही होता है, यह परमाणुओं के विशेष प्रकार के अवगाह के कारण है। गोम्मटसार के जीवकाण्ड में भी 'समय' की यही व्याख्या दी है। संपूर्ण द्रव्यों के पर्याय की जघन्य स्थिति एक क्षणमात्र की होती है। दो परमाणुओं के अतिक्रमण करने के काल का जितना प्रमाण है, उसको समय कहते हैं।
सर्य गति निमित्तक व्यवहारकाल मनुष्य क्षेत्र में ही चलता है, क्योंकि लोकाकाश के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं और बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित
धवला में भी इसी बात की पुष्टि होती है कि त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से परिपूरित एक मात्र मनुष्यक्षेत्र संबन्धी सूर्यमंडल में ही काल है अर्थात् काल का आधार मनुष्य-क्षेत्र संबन्धी सूर्यमंडल है।'
१००. नि.सा.ता. ३१ एवं प्र.सा.त.प्र. १३९ १. प्रवचनसार ता. वृत्ति १३९ । २. गोम्मटसार जीवकाण्ड १७२ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड ५७७ ४. धवला ४.१५१.३२०.५
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