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स्वप्रत्यय है ही; क्योंकि वह स्वभाव में सदा व्यवस्थित रहता है । व्यय और उत्पाद अगुरुलघुगुणों की हानि - वृद्धि की अपेक्षा स्वप्रत्यय है तथा पर द्रव्यों में वर्तनाहेतु होने से परप्रत्यय भी है। काल में अचेतनत्व, अमूर्त्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं । व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं; अतः वह द्रव्य है । ६५
यहाँ एक अन्य प्रश्न और होता है कि यदि 'काल' द्रव्य है तो उसे धर्म और अधर्म आदि के साथ क्यों नही स्पष्ट किया? पूज्यपाद ने इसका समाधान इस प्रकार दिया है- “यदि वहाँ काल द्रव्य का कथन करते तो इसे काययुक्त मानना पड़ता और कालद्रव्य में मुख्य अथवा उपचार दोनों रूप से प्रदेशप्रचय की कल्पना का अभाव है । धर्मादि को मुख्यरूप से प्रदेशप्रचय कहा है और अणु को उपचार से । परन्तु काल में दोनों नहीं हैं अतः काल नहीं है । "
दूसरा समाधान यह है कि “निष्क्रियाणि च ६६ इस सूत्र द्वारा धर्म से लेकर आकाश तक के अजीव द्रव्यों को निष्क्रिय कहने पर जैसे अवशिष्ट बचे जीव और पुद्गल को स्वतः सक्रियत्व प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार काल के सक्रियत्वं की अपत्ति होती ।
आकाश से पहले भी काल को नहीं रख सकते । “आकाश तक एक द्रव्य है”६७ - इस सूत्र के अनुसार यदि काल को आकाश से पहले रखते तो काल भी 'एक' द्रव्य होता, जब कि जैनसिद्धान्त के अनुसार काल द्रव्य संख्या में अनन्त । इन सभी दोषों से बचने के लिए 'काल' का अलग से ग्रहण करेने के लिए पृथक् सूत्र बनाया गया है । ६८
काल का लक्षण :
उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना बताया गया है ।" तत्त्वार्थसूत्र में स्वाति ने काल के लक्षण वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व माने
हैं।
६५. त. रा. वा. ५.३९१-२५०१
६६. त.सू. ५-७
६७. त. सू. ५.६
६८. स. सि. ५.३९६०२
६९. उत्तराध्ययन सूत्र २८.१०
७०. वर्तना परिणाम क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य । - त. सू. ५२२
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