________________
२. भिन्नप्रमाणग्राह्यत्व - वर्तना और परिणाम में प्रमाण का भी अन्तर हैं । वर्तना को प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं जान सकते, अपितु उसका अनुमान करना पड़ता है, जबकि परिणाम को हम प्रत्यक्ष प्रमाण से जान सकते हैं। जैसे मिट्टी का घट के रूप में परिणमन परिणाम है और मिट्टी का अस्तित्व में बने रहना वर्तना है ।
गति और स्थिति क्रिया का जब परिणाम में अन्तर्भाव होता है तो परिस्पन्दात्मक क्रिया भी उसी के अन्तर्गत आ सकती है। ऐसे में मात्र परिणाम का निर्देश करना चाहिये । क्रिया की अलग से क्या आवश्यकता है?
इसका समाधान तत्त्वार्थवार्तिक में इस प्रकार दिया है कि परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक- दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिये क्रिया का पृथक् ग्रहण करना आवश्यक है । परिस्पन्द क्रिया है और अन्य परिणाम । ८२
वर्तना आदि द्वारा काल का अनुमान होता है। काल का लक्षण यही बताया है कि जिससे मूर्त्तद्रव्यों का उपचय और अपचय लक्षित होता है वह काल है । ८३ काल अखंडप्रदेशी नहीं है :
आकाश की तरह काल अखंड और एक्प्रदेशी नहीं है, क्योंकि एक पुद्गल परमाणु एक आकाशप्रदेश से दूसरे आकाशप्रदेश पर जाता है और इसमें जो समय लगता है, अगर गहराई में जाकर देखें तो यह समय ही कालद्रव्य की पर्याय है । यह अतिसूक्ष्म होने से निरंश भी है । यदि कालद्रव्य को लोकाकाश के बराबर अखंड और एक माना जाता है तो इस अखंड समयपर्याय की निष्पत्ति नहीं होती, क्योंकि पुगल परमाणु जब एक कालाणु को छोड़कर दूसरे कालाणु के प्रति गमन करता है, तब वहाँ दोनों कालाणु पृथक्-पृथक् होने से समय का भेद बन जाता है और यदि एक अखंड लोक के बरोबर कालद्रव्य हो तो समय पर्याय की सिद्धि किस प्रकार हो सकती है, अर्थात् नहीं हो सकती ।
यदि यह तर्क दिया जाय कि कालद्रव्य लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के प्रति जाने पर समय पर्याय की सिद्धि हो जायेगी ?
८२. त. रा. वा. ५.२२.२०, २१.४८१
८३. "येन मूर्तानामुपचयाश्चापचयाश्च लक्ष्यन्ते स कालः” रा. वा. ५.२३ पृ. ४८१ ( उद्धृत )
Jain Education International
१९९
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org