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सारतत्त्वों का अनुमान दृश्यमान पदार्थों से होता है । तन्मात्राएँ तब तक इन्द्रियों के लिये उत्तेजक नहीं बनतीं जब तक कि वे परमाणुओं का निर्माण करने के लिये एक दूसरे में संयुक्त न हो जायें । तमोगुण निष्क्रिय एवं पुंज के अतिरिक्त सभी लक्षणों से रहित भी होता है । रजोगुण के सहयोग से यह परिवर्तित होकर सूक्ष्मद्रव्य कम्पनशील तेजोमय और शक्ति से परिपूर्ण हो जाता है। तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गन्ध की तन्मात्राएं उत्पन्न होती हैं। भूतादि तथा तन्मात्राओं के मध्य आकाश संक्रमण की कडी बनती है। आकाश के दो भेद करते हैं-कारणाकाश और कार्याकाश । कारणाकाश आणविक नहीं है तथा सर्व व्यापक है। कार्याकाश आणविक है, जो भूतादि अथवा पुंज इकाईयों और शब्द के सारतत्त्वों के मेल से बना है । शब्द के सारतत्त्व कारणाकाश में रुके हुए रहते हैं तथा वायु के अणुओं के लिये विकास का माध्यम बनते हैं ।" जैनदर्शन सांख्य की आकाश विवेचना से असहमत है। उसके अनुसार आकाश को प्रकृति का विकार मानना उचित नहीं है । नित्य और निष्क्रिय अनन्त प्रकृति के आत्मा की तरह विकार हो नहीं सकता । आकाश का न आविर्भाव होता है न तिरोभाव । जिस प्रकार घड़ा प्रकृति का विकार होकर अनित्य, मूर्त्त और असर्वगत होता है, उसी तरह आकाश को भी होना चाहिये। या आकाश की तरह घट को नित्य अमूर्त और सर्वगत होना चाहिये। एक कारण से दो परस्पर अत्यन्त विरोधी विकार नहीं हो सकते । अद्वैत वेदान्त और आकाश :
यह मत द्वैत को स्वीकार नहीं करता । द्वैतपरक जगत् केवल माया है । ब्रह्म एक ही है, अनेक जीवों में विभक्त प्रतीत होना अध्यासमात्र है। अद्वैत वेदान्त में आत्मा की तुलना सर्वव्यापी देश (आकाश) से की गयी है और जीव की तुलना घड़े में सीमित देश (आकाश) के साथ की गयी है। जब ढंकनेवाला बाह्य आवरण नष्ट हो जाता है तो सीमाबद्ध देश (घटाकाश) व्यापक देश (महाकाश) में मिल जाता है। भेद केवल ऐसे आनुषंगिक पदार्थों में रहते हैं, जैसे-आकृति, क्षमता, नाम । परन्तु स्वयं व्यापक आकाश में यह भेद नहीं होता। जैसे हम यह नहीं कह सकते कि सीमाबद्ध आकाश व्यापक आकाश का अवयव है या विकार है। ये दोनों एक ही हैं, भेद प्रतीति मात्र हैं । ५ इसी प्रकार 'जीव' आत्मा का अवयव या ४४. पोजेटिव साइंसेस ऑफ दी हिन्दूज शील, उद्धृत भारतीय दर्शन भाग २ डॉ. राधाकृष्णन
पृ. २६९-७०
४५. त. रा. ५.१८.१३.४६८
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