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परिणामिकारण:- जो स्वयं कार्यरूप से परिणमन करे, कार्य के आकार में बदल जाये वह परिणामी कारण है, जैसे-घड़े में मिट्टी (इसे उपादान कारण भी कहते हैं।)। निमित्तकारण:- निमित्त कारण वे हैं जो स्वयं कार्यरूप में परिणत तो न हों, पर कर्ता को कार्य में सहायक हों, जैसे-घड़े की उत्पत्ति में दण्ड, चक्र आदि। निर्वर्तक कारण:- कार्य का कर्ता निर्वर्तक कारण होता है, जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार । तत्त्वार्थसूत्रभाष्य में उद्धृत इस पद्य से भी इसकी पुष्टि होती
निर्वतकं निमित्तं परिणामी च त्रिधेष्यते हेतुः।
___ कुंभकारो धर्वा मुच्चेति समसंख्यम् ।। निमित्तकारण के प्रकार :- निमित्तकारण दो प्रकार के हैं-- एक तो शुद्ध निमित्तकारण तथा दूसरा अपेक्षा निमित्तकारण । स्वाभाविक तथा कर्ता के प्रयोग से जहाँ क्रिया होती है, वह शुद्ध निमित्तकारण है, एवं जहाँ स्वाभाविक परिणमन मात्र होता हो, वह अपेक्षा निमित्तकारण कहलाता है।
धर्मास्तिकाय का स्वरूपः
धर्मास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य है, क्षेत्र की अपेक्षा लोकप्रमाण है, काल की अपेक्षा वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, अतः ध्रुव निश्चित, शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है । गुण की अपेक्षा गतिनिमित्त गुण है; जीव और पुद्गल द्रव्य की गति में उदासीन सहायक है। उत्तराध्ययन में भी धर्मास्तिकाय के गमननिमित्त गुण की पुष्टि की गई है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने भी धर्मास्तिकाय को गमन में उपकारी बताया है।५ १२. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ४९.१६७ १३. उद्धृतेयं त.भा.टी. पृ. ५१७ १४. षड्.दर्शन समुच्चय टीका ४९.१६८ ३. ठाणांग ४. गइ लक्खणो धम्मो।-उत्तराध्ययन २८.९ ५. त.सू. ५.१७
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