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अध्याय : चतुर्थ अजीव का स्वरूप
... जीव से विपरीत स्वभाव वाले पदार्थ अजीव हैं। अजीव समूह में पाँच अस्तिकाय आते हैं--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । अस्तिकाय का अर्थ है बहुप्रदेशी। जिनके टुकड़े न हो सकें एसे अविभागी प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं। इस अध्याय में सभी अजीवास्तिकाय द्रव्यों का क्रम से विवेचन किया जा रहा है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायः
धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय- दोनों द्रव्य मात्र जैनसिद्धान्त द्वारा ही प्रतिपादित किये गये हैं। यहाँ प्रयुक्त 'धर्म' और 'अधर्म' दानों ही पारिभाषिक शब्द हैं जो दो पृथक्-पृथक् द्रव्यों के अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं; साधारण बोलचाल की भाषा हो या धर्म साहित्य हो, 'धर्म' शब्द लोक में बहुप्रचलित स्वभाव, सुख-दुःखनिमित्तक आचरण, मोक्षप्राप्ति के उपाय, पुण्य-पाप, शुभअशुभ, प्रशस्त-अप्रशस्त, उचित-अनुचित व्यवहार आदि अर्थों में प्रचलित है। किन्तु यहाँ 'धर्म' और 'अधर्म' शब्द इन वाच्यार्थों से भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हैं। जैनदर्शन ने जीवद्रव्य की तरह धर्मास्तिकाय को भी द्रव्य माना है तथा उसे भी गुण और पर्याय से युक्त कहा है।
धर्म द्रव्य वह है जो गति में सहायक कारण हैं अधर्म द्रव्य वह है जो स्थिति (अवस्थान-ठहरना) में सहायक कारण हैं।
यहाँ सर्वप्रथम कारण के स्वरूप को जानना आवश्यक है, इसके बिना धर्म और अधर्म की कारणता नहीं समझी जा सकती। कारणों के प्रकार :- षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने कारण तीन प्रकार के बताये हैं-परिणामिकारण, निमित्तकारण और निवर्तककारण । १. भगवती २.१०.१ एवं ठाणांग ५.१७० २. षड्दर्शन के बताये हैं- परिणामिकारण, निमित्तकारण और निवर्तकारण।
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