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का ईथर में अभाव होगा, परन्तु उसके अपने नये और निश्चयात्मक गुण होंगे।"२८ __प्रोफेसर जी. आर. जैन. एम. एससी., धर्म और ईथर की तुलना करते हुए लिखते हैं
"Thus it is proved that science and Jain Physics agree absolutely so far as they call Dharm (ETHER) nonmaterial, nonatomic, non-discrete, continuous, co-extensive with space in divisible and as a necessary medium for motion and one which does not itself move."
अर्थात् यह सिद्ध हो गया है कि "विज्ञान और जैनदर्शन दोनों यहाँ तक एकमत हैं कि धर्मद्रव्य या ईथर अभौतिक, अपारमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड आकाश के समान व्यापक, गति में अनिवार्य माध्यम, और अपने आप में स्थिर
वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत यह 'ईथर' गतिनिमित्त तत्त्व का ही दूसरा नाम हैं। ईथर संबंधी ये सारी मान्यताएँ मध्ययुगीन वैज्ञानिक युग से संबंधित हैं। ___ यदि धर्मास्तिकाय की सत्ता नहीं होती तो पुद्गल और जीव की गति में निमित्त कौन होता? क्योंकि जीव और पुद्गल तो स्वयं उपादान कारण हैं। वायु स्वयं गतिशील है तो पृथ्वी, और जल लोक में सर्वत्र व्याप्त नहीं है। अतः हमें ऐसी शक्ति की अपेक्षा है जो स्वयं गतिशून्य हो और संपूर्ण लोकं में व्याप्त हो, साथ ही अलोक में नहीं।२९ अधर्मास्तिकाय का स्वरूपः
अधर्मास्तिकाय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, अर्थात् अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोक प्रमाण है, एवं जीव और पुद्गल की स्थिति में सहायक तत्त्व है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी अधर्म को स्थिति लक्षण वाला सूचित किया है।३१
२८. ------- २९. प्रज्ञापना वृ.प.१ ३०. भगवती २.१०.२ एवं ठाणांग ५.१७१ ३१. अधम्मो ठाण लक्खणो।- उत्तरा. २८.९
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