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धर्मास्तिकाय की उपयोगिता :. जीव और पुद्गल-दोनों ही इस लोकाकाश में इधर से उधर भ्रमण करते हैं। स्थूल गतिक्रिया तो इन्द्रियग्राह्य है, परन्तु सूक्ष्म गतिक्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। सूक्ष्म और स्थूल, इन दोनों प्रकार की गतिक्रिया में धर्म द्रव्य सहायक बनता है। धर्मास्तिकाय को मानने के दो कारण हैं:
१. गति का सहयोगी कारण एवं २. लोक-अलोक की विभाजक शक्ति
यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होता तो जीव और पुद्गल की गति का अभाव हो जाता या सदा ही गति होती रहती। जीवादि सभी पदार्थों के अस्तित्व से युक्त समूह को लोक कहते हैं । जहाँ जीवादि का संपूर्ण अभाव हो वह अलोक है। यदि जीव-पुद्गल को बहिरंग निमित्त धर्मादिन मिले तो अलोक में उनके गमन को रोका नहीं जा सकता। धर्मास्तिकाय के कारण ही गति व्यवस्था नियंत्रित होती है और लोक-अलोक के मध्य विभाजक रेखा भी बनती है। ___धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व पृथक् है, अतः भिन्न हैं, पर दोनों एक ही क्षेत्रावगाही होने के कारण अविभक्त भी हैं। साथ ही संपूर्ण लोक में गति आदि में अनुग्रह करते हैं, अतः लोकप्रमाण भी हैं। भगवतीसूत्र के अनुसार लोक के तीनों भागों का धर्मास्तिकाय स्पर्श करता है। अधोलोक धर्मास्तिकाय के आधे से अधिक भाग को तिर्यग्लोक असंख्येय भाग को ऊर्ध्वलोक कुछ कम धर्मास्तिकाय के आधे भाग का स्पर्श करता है। भगवंतीसूत्र में गौतमस्वामी पूछते हैं कि धर्मास्तिकाय द्वारा जीवों की क्या गतिविधि होती है? भगवान् कहते हैं- धर्मास्तिकाय द्वारा ही जीवों के आगमन, गमन, उन्मेष, (नेत्र खोलना) मनोयोग, वचनयोग, और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसके अतिरिक्त भी जितने चलभाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है।२२
गति में उदासीन सहायता धर्म द्रव्य का लक्षण है, परन्तु यह स्वयं प्रेरित नहीं २०. पं. का. गाथा ८७ २१. भगवती १३.४.२४ २२. वही
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