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आत्मा और गुणस्थान :. जीव के विकास सोपान चौदह माने गये हैं ।३८९ मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त, क्षीणमोह, सयोगकेवली, और अयोगकेवली।३९० १) मिथ्यात्व :- मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं ३९१, एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित
और अज्ञान। २) सास्वादन :- उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहर्तमात्र काल में जब जघन्य एक समय उत्कृष्ट छः आवली प्रमाण काल शेष रहे, उतने काल में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी के उदय से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यग्दर्शन गुण की जो अव्यक्त अतत्त्वश्रद्धारूप परिणति होती है, उसको सास्वादन गुणस्थान कहते हैं। ३) मिश्र गुणस्थान :- जिस प्रकार दही और गुड़ को अच्छी तरह मिलाने पर न उसका स्वाद खट्टा होता है न मीठा, अपितु मिश्रित होता है, उसी प्रकार मिश्र में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित परिणाम होता है और एक ही जीव में एक साथ दोनों संभव भी हैं। जैसे एक ही व्यक्ति एक का मित्र है, एक का अमित्र है, वैसे ही एक व्यक्ति सर्वज्ञप्ररूपित वचनों में एवं असर्वज्ञकथित सिद्धान्तों में एक साथ श्रद्धान रखता है ।३९२ .
इस गुणस्थान में न चारित्र ग्रहण करता है, न श्रावकत्व । इसमें आयु बन्ध भी नहीं पड़ता है और न इसमें व्यक्ति की मृत्यु हो सकती हैं। ३९३ (४) अविरत सम्यग्दृष्टिः- इस गुणस्थान में जीव सम्यग्गदृष्टि होते हुए भी व्रतधारी नहीं बन सकता । यह श्रद्धान (सर्वज्ञ प्ररूपित वाणी में) अवश्य रखता
३८९. समवायांग १४.५ ३१०. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ९.१० तथा द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २ ३९१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. १५.१६.१७ ३९२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) २१.२२ ३९३. वही गा. २३.२४
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