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... भगवतीसूत्र में बन्ध का कारण कांक्षामोहनीय कर्म को माना है। प्रमाद और योग के निमित्त से जीव कांक्षामोहनीय कर्म बांधता है। प्रमाद योग से उत्पन्न होता है, योग वीर्य से, एवं वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । (जब जीव नामकर्म से युक्त हो तभी शरीर उत्पन्न करता है।) जब बन्ध का कारण शरीर है तो उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम भी जीव से ही होता है । ४३२ . आम्रव.... आम्रव का अर्थ है द्वार! कर्मों के आगमन या प्रवेश द्वार को आसवं कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में ४३३ उमास्वाति ने पाँच भेद बताये हैं--मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग । कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में ४३४ आस्रव के चार भेद बताये हैं; प्रमाद का समावेश इन्हीं में हो जाता है।
द्रव्यास्रव एवं भावास्रव भेद से आस्रव दो प्रकार का है। आत्मा के जिस परिणाम से कर्म का आस्रव होता है उसे भावास्रव कहते हैं, एवं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के याग्य पुद्गलों के आस्रव को द्रव्यास्रव कहते हैं।४३५ ___ श्रीमद् नेमिचन्द्र ने आस्रव पाँच माने हैं और उनके क्रमशः पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद भी किये हैं!४३६ .
ठाणांग सूत्र में इन आस्रवों का अर्थ करते हुए लिखा है- मिथ्यात्व-विपरीत श्रद्धा, अविरति-व्रतरहित जीवन, प्रमाद-आत्मिक अनुत्साह,कषाय-आत्मा का रागद्वेषात्मक उत्ताप, योग-मन, वचन और काय का व्यापार । ४३७ .
हरिभद्र सूरि ने भी कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व आदि को आस्रव कहा है।४३८ ४३१, वही . ४३२. भगवती १.३.८.९ ४३३. त.सू. ८.१ ४३४. स.सा. १६४ ४३५. बृ.द्र.सं. २९ ४३६. बृ.द्र.सं. ३० ४३७. ठाणांग ५.१०९ ४३८. षड्दर्शनसमुच्चय का ५०
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