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पर पुलिंग और स्त्रीलिंग में समान लेश्या हैं, पर वैमानिक देवियाँ इसका अपवाद हैं। उनमें मात्र तेजोलेश्या ही पायी जाती है।३४९
ये लेश्याएँ सभी में संख्यानुसार होना अनिवार्य नहीं है। जीवों के अपनेअपने पुरुषार्थ की अपेक्षा उस-उस लेश्या तक पहुँचे की क्षमता हो सकती है। लेश्याओं को समझने के लिए मनुष्य को उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है
कृष्णलेश्या वाला अत्यंत रौद्र, मत्सर, नित्यक्रोधी, धर्मरहित, दयाहीन और गहरी दुश्मनी वाला होता है।
नीललेश्या वाला प्रमादी, मूढमति, स्त्रीलुब्ध, ठगनेवाला, कायर, डरपोक, सदा अभिमानी वाला होता है।
कापोतलेश्या वाला चिन्ता, आकुलता से पीड़ित, परनिंदा, स्वप्रशंसा और रुष्ट स्वभाव वाला होता है।
तेजोलेश्या वाला विद्वान, दयालु, कार्य का अनुचित/उचित विचारक, विवेकी आदि होता है।
पद्मलेश्या वाला क्षमाशील, त्यागी, देव गुरु भक्त, निर्मल चित्त एवं सदानंदी स्वभाव वाला होता है।
शुक्ललेश्या वाला राग-द्वेष रहित, शोक और निद्रामुक्त, परमात्मवैभव से युक्त होता है । ३५०
कर्म और जीव :___ कर्मसिद्धान्त और उस पर सूक्ष्म चिन्तन जैन दर्शन की अभूतपूर्व देन है। कर्मसिद्धान्त से संबन्धित विपुल साहित्य जैन दर्शन की अनमोल संपत्ति है। भारतीय वाङ्मय में अनेक वादों का दिग्दर्शन हुआ है, जिनके अनुसार काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, योनि, पुरुष आदि को संसार की उत्पत्ति का कारण एवं सुख-दुःख का कारण माना जाता है ।३५१ जैन दर्शन ने सुख-दुःख का कारण जीव के कर्म को माना है। ३४९. प्रज्ञापना १७.११६६-६९ ३५०. पैंतीस बोल विवरण ४०.४१ ३५१. काल स्वभावो नियति-सुखदुःख हेतो - श्वेताश्वर उप. १२
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