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जा रहा है
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ज्ञानावरणीय :
आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करने वाला आवरण ज्ञानावरणीय कहलाता है । ३६० जैसे आँख पर पट्टी बाँधने के कारण नेत्रों की पदार्थों को जानने की जो शक्ति जाती है, वैसे ही आत्मा को आवृत्त करने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कहते हैं । ३६१ यह कर्म ज्ञान को आच्छादित करता है, समाप्त नहीं । मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं । ३६२.
दर्शनावरणीय :
पदार्थ के सामान्य धर्म का बोध जिसके कारण रुक जाय, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । ३६३ जिस प्रकार पहरेदार शासक को देखने के लिए उत्सुक व्यक्ति को रोक देता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति पर आवरण डालकर उसे रोक देता है । ३६४ चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरण की नौ उत्तरकर्मप्रकृतियाँ हैं । २६५
'वेदनीय
जिस कर्म के कारण सुख - दुःख का संवेदन आत्मा को होता है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । वेदनीय कर्म की साता और असाता दो प्रकृतियाँ होती हैं । ३६६ सातावेदनीय कर्म के कारण जीव को शरीर और मन संबन्धी सुख मिलता है । असातावेदनीय के उदय से मन, वचन और काय संबन्धी पीड़ा भोगनी पड़ती है । ३६७
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३६०. स.सि. ८.३.७३६
३६१ : गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ) गा. २१
३६२. त. सू. ८.६ एवं उत्तराध्ययन ३३.४ ३६३. अनानालोकनम् - स. सि. ८.३.७३६
३६४. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. २१
३६५. उत्तराध्ययन ३३.५.६१
३६६. वेदस्य सदसल्लक्षणस्य सुखदुःख संवेदनम् - स. सि. ८.३.७३६, उत्तराध्ययन ३३.७
३६७. स. सि. ८.८.७४६
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