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मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय को विभाव ज्ञानोपयोग और केवलज्ञान को स्वभाव ज्ञानोपयोग कहते हैं ! १४३ यह ज्ञान इन्द्रिय-निरपेक्ष और असहाय है !१४४ चक्षु अचक्षु, अवधि ये दर्शन विभाव दर्शन, और केवल दर्शन स्वभाव दर्शन है । १४५
उपयोग में क्रम:- यह ज्ञान-दर्शनमय उपयोग छद्मस्थ कर्मयुक्त आत्मा को क्रम से, और केवली को युगपत् होता है! १४६
नियमसार में सूर्य का उदाहरण देते हुए इसे और स्पष्ट किया है, जैसे सूर्य का प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं, उसी प्रकार केवलज्ञानी को ज्ञान और दर्शन एक साथ वर्तते हैं । १४७
सहवादी और क्रमवादी :- द्रव्य और गुण अनन्य हैं, वे एक दूसरे से अभिन्न होते हैं । १४८ ज्ञान जीव का स्वरूप या लक्षण है, अतः आत्मा, आत्मा को जानता ही है । १४९ परन्तु केवली को वह उपक्रम पूर्वक होता है या एक साथ, इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद है ।
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श्वेताम्बर परम्परा के आगमपाठ यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ज्ञान और दर्शन एकसाथ संभव नहीं हैं। इस विषय में गौतम गणधर और महावीर स्वामी का संवाद भगवतीसूत्र में पठनीय है। गौतम जिज्ञासु भाव से पृच्छा करते हैं, प्रभु ! क्या परम अवधिज्ञानी मनुष्य जिस समय परमाणु पुद्रलस्कन्ध को जानता है, उस समय देखता है? प्रभु ने समाधान में कहा- नहीं ।
गौतमस्वामी स्वामी ने पुनः पूछा- ऐसा क्यों? तब भगवान् ने कहा- परम अवधिज्ञानी का ज्ञान साकार (विशेषग्राहक) है और दर्शन अनाकार है, अतः जानना और देखना एक समय में संभव नहीं है। यही प्रश्न पुनः केवलज्ञानी के बारे
१४३. नि.सा. १० १४४. नि. सा. १२
१४५. नि.सा. १३.१४
१४६. स. सि. २.९.२७३ १४७. नि.सा. १६०
१४८. प. का. ४५ १४९. नि.सा. १७०
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