________________
सभी स्थावर आहार के अभिलाषी प्रतिक्षण रहते हैं । २५८ द्रव्य स्वरूप से अनन्तप्रदेशी होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा से छहों दिशाओं में रहते हैं। काला, नीला, पीला, लाल, सफेद वर्ण के, सुरभि गंध - दुरभिगंध के, तिक्तिादि पाँचों रसों के, कर्कशादि आठों स्पर्शों से युक्त आहार लेते हैं। स्थावरजीवों के स्पर्शन इन्दिय होती है। सभी स्थावर जीव असंख्यातवें भाग का आहार लेते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श करते हैं। आहार किये हुए पुद्रल साता असाता में विविध प्रकार से र-बार परिणत होते रहते हैं । २५९
बार
इन सभी की वेदना समान होती है। ये असंज्ञी होते हैं अर्थात् मन रहित होते हैं । मायी और मिथ्यादृष्टि होने के कारण इन्हें नियम से आरंभिकी आदि पाँचों क्रियाओं का दोष लगता रहता है। संज्ञा की अपेक्षा संसारी जीवों को संज्ञी और असंज्ञी अर्थात् मन रहित (अमनस्क) और मन सहित (समनस्क) - ऐसे दो वर्गों में विभक्त किया गया है । २६०
वनस्पतिकाय: विशेष विमर्श
'आचारांग' में मनुष्य और वनस्पति की स्पष्ट तुलना की गयी है। ''मैं कहता हूँ मनुष्य भी जन्मता है, वनस्पति भी जन्मती है । मनुष्य भी बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य भी चेतनयुक्त है, वनस्पति भी चेतनयुक्त है । छिन्न होने पर मनुष्य और वनस्पति दोनों म्लान होते हैं। मनुष्य और वनस्पति दोनों आहार करते हैं। मनुष्य भी अनित्य है, वनस्पति भी अनित्य है, दोनों अशाश्वत हैं । १२६१
वनस्पति सजीव है, हजारों वर्ष पूर्व की भगवान् महावीर की इस घोषणा को प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने सन् १९२० में प्रमाणित किया था । आज वनस्पति के विषय में जीवविज्ञान की आधुनिक शाखा स्वतन्त्र रूप से स्थापित हो चुकी है । आधुनिक विज्ञान द्वारा जीवित पदार्थ (Living organism) के सामान्य लक्षण प्रतिपादित किये हैं, वे सभी वनस्पतियों में भी पाये जाते हैं
जो स्पन्दन (Movement) :- साधारण: वनस्पतियाँ अपने स्थान पर ही २५८. भगवती १.१.१२, १३ पृ. २७.२८
२५९. भगवती १.२.७ पृ. ४७-४८
२६०. त.सू. २.११
२६१. आचारांग सूत्र १.५.५६
Jain Education International
११२
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org