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हत है।
और पारिणामिक-इन पाँच भावों२२६ की संक्षिप्त व्याख्या पूज्यपाद कृत सर्वार्थसिद्ध टीका में निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होती है। औपशमिक भावः
जैसे कतक आदि द्रव्य के संबन्ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रकट न होना या कुछ समय के लिये रोक देना उपशम है । जीव के जिस भाव के प्रगट होने का निमित्त कारण कर्मशक्ति का 'उपशम' है, वह औपशमिक भाव है ।२२७ इसे स्पष्ट करते हुए क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने लिखा है-कर्मों के दबने को उपशम और उस उपशम से उत्पन्न जीव के परिणामों को औपशमिक भाव कहते हैं।
उमास्वाति ने औपशमिक भाव के दो भेद किये हैं-सम्यक्त्व और चारित्र ।२२८ सम्यक्त्व के साथ पठित होने से यहाँ पर चारित्र का अर्थ सम्यक् चारित्र है।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इनमें से दर्शनमोहनीय के तीन उत्तरभेद हैं: सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व, और चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं : कषायमोहनीय और अकषायमोहनीय । कषायमोहनीय के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, और दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व-इन सात कर्मप्रकृतियों के उपशम से औपशमिक भाव होता है ।२२९ सम्यग्दर्शन का घात उपर्युक्त सात कर्मप्रकृतियों के कारण ही होता है । इसके विपरीत, इन सातों प्रकृतियों के उपशम से तत्त्वरुचि प्रकट होती है, उस औपशमिक सम्यक्त्व (सम्यगदर्शन) कहते हैं ।
शुभ और अशुभ क्रियाओं में क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म की अकषाय(नोकषाय) एवं कषाय(क्रोध-मान-मायालोभ) नामक उत्तरप्रकृति के भेद प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के उपशम से औपशमिक चारित्र प्रकट होता है ।२३०
२२६. त.सू. २.१ २२७. स.सि. २.१.२५२ २२८. त.सू. २.३ २२९. स.सि. २.३.२५७ २३०. सभाष्यताधिगम सूत्र २.३.७७
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