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कर्मयुक्त आत्मा :
जब तक आत्मा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से बंधा हुआ है, तब तक वह संसारी कहलाता है । ज्योंहि ये कर्म समाप्त होते हैं या जीव से कर्मों का संबन्ध विच्छिन्न होता है, उसका शुद्ध और उज्ज्वल स्वरूप प्रकट हो जाता है । २१६ इसे परमात्मा या सिद्धात्मा भी कहते हैं। शुद्ध आत्मा का स्वरूप चैतन्य है - जैसा पूर्व में पारमार्थिक जीवस्वरूप विवरण में कह आये हैं।
जीव में ज्ञान - दर्शन गुण की धारा निरन्तर बहती रहती है । संसारी अवस्था में जैसा - जैसा बाह्य और अन्तरंग निमित्त मिलता है, उसके अनुसार वह धारा न्यूनाधिक और मलिन, मलिनतर या मलिनतम होती है; मात्र केवली अवस्था में परिपूर्ण विशुद्ध हो पाती है क्योंकि केवली में बाह्य व अंतरंग कारण अपेक्षित नहीं रहते । २१७
कुन्दकुन्दाचार्य ने आत्मा का स्वरूप पंचास्तिकाय में बताते हुए कहा है कि आत्मा चैतन्य, उपयोग स्वरूप, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, अमूर्त, व कर्मसंयुक्त है । २१८
षड्दर्शनसमुच्चय में आचार्य हरिभद्रसूरि ने जीव का स्वरूप बताते हुए कहा. है कि-जीव चैतन्यस्वरूप, ज्ञान-दर्शन आदि गुणों से भिन्न-भिन्न, मनुष्यादि विभिन्न पर्यायों को धारण करने वाला, शुभ अशुभ कर्म का कर्त्ता और फल का भोक्ता है । २१५
जीव अनादिनिधन है और चेतना उसका सहज स्वभाव है । २२०
भगवतीसूत्र में 'जीव' और प्राणी को भिन्न-भिन्न बताया गया है । गौतमस्वामी ने जब जीव और चैतन्य की भिन्नता विषयक जिज्ञासा प्रगट की, महावीर स्वामी ने जीव और चैतन्य को एकार्थक बताया । २२१ परन्तु जब प्राणी
२१६. पं.का. २०
२१७. स.मि. २.८.२७३
२९८. पं.का. २७
२१९. षड्दर्शन समुच्चय ४८-४९
२२०. अभिधान राजेन्द्र कोष भा. ४ पृ. १५१९
२२१. भगवती ६.१०.२
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