________________
और जीव की भिन्नता में पूछा तो महावीर स्वामी कहा- जो प्राण धारण करता है, वह तो जीव है, परन्तु जो जीव है उसके लिये प्राण धारण करना अनिवार्य नहीं है। शुद्धात्मा के प्राण नहीं होते । २१२ तात्पर्य यह है कि जीव और प्राणी में यह भेद है कि प्राणी उस जीव की (उस अवस्था की) संज्ञा है जिसके द्रव्यप्राण और भावप्राण हों; ये संसारी जीव में ही होते हैं, संसार से मुक्त जीव के शरीर के अभाव में प्राण का अस्तित्व नहीं होता; वह केवल अपने जीवत्व गुण के साथ जीव संज्ञा पाता है ।
सांख्य दर्शन आत्मा को उपचार से कर्मों के सुखादि फल का वास्तविक भोक्ता मानता है । २२३
यद्यपि आत्मा शुद्धनय से निर्विकार है! परम आह्लाद जिसका लक्षण है ऐसे सुखामृत का भोक्ता है तो भी अशुद्धनय से सांसारिक सुख दुःख का भी भोक्ता होता है । २२४ जीव को वास्तविक भोक्ता न कहकर अगर उपचार से कहा जाय तो सुख दुःख का संवेदन निराधार हो जायेगा । २२५
संसारी और मुक्त आत्मा और अत्मिकभाव :
समस्त संसारी जीव कर्ममल से लिप्त हैं । कर्मशक्ति के कारण जीव की स्वाभाविक शक्ति का आविर्भाव रुक जाता है। जीव की शक्ति कर्मशक्ति के अनुपात में अधिक होती है। जैसे एक छोटी चादर से शरीर को ढँकने पर शरीर
कोई न कोई भाग अनावृत रह ही जाता है, उसी प्रकार अनादि संसारी जीव के चेतनगुण को कर्मशक्ति द्वारा पूर्णरूप से आवृत नहीं किया जा सकता ।
जैन सिद्धान्त में अशुद्धात्मा और शुद्धात्मा के भावों के आश्रय से जीव द्रव्य के स्वरूप का कथन किया जाता है । जीव की १४ अवस्थाओं (विकास की भूमिकाओं) में होने वाले इन भावों को पाँच वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। भगवतीसूत्र में इन्हें छह वर्गों में व्यवस्थित किया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र में वाचक उमास्वाति के द्वारा निर्दिष्ट आत्मा के औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदरिक
२२२. भगवती ६.१०.६
२२३. षड्दर्शनसमुच्चय टीका ४९.९६
२२४. बृ.द्र. स. ९
२२५. स्याद्वादमं. १५.२२९
Jain Education International
१०५
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org