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(दान,लाभ, भोग,उपभोग और वीर्य),सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ।२३६ उदयप्राप्त सर्वघाती कर्मस्पर्धकों क्षय होने से और अनुदय प्राप्त सर्वघाती कर्मस्पर्धकों का सदवस्था रूप उपशम होने पर तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय होने पर मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव होता है । २३७ औदयिक भाव :___ मन, वचन और काय की विभिन्न क्रियाओं को करने से शुभ, अशुभ कर्मों का संचय आत्म प्रदेशों में होता रहता है। ये कर्म काललब्धि से पक कर जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से फल प्रदान करते हैं, तब यह उनकी. उदय अवस्था है ।२३८ इस कर्मोदय से होनेवाली जीव की अवस्था को औदयिक भाव कहते हैं। ___ औदयिक भावों के इक्कीस भेद'३९ बतलाये हैं-चार गति-देव, मनुष्य, तिर्यंच
और नरक; चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ; तीन लिंग-स्त्री लिंग, पुरुष लिंग और नपुंसकलिंग; मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व एवं छः लेश्याकृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल ।
भगवती सूत्र में जीव के भावों को छः भावों में वर्गीकृत करते हुए छठे 'सान्निपातिक' २४० भाव का भी उल्लेख किया गया है। वहाँ औदरिक भाव को दो प्रकार का बताया गया है-उदय और उदयनिष्पन्न । उदय का अर्थ आठ कर्म प्रकृतियों का फल प्रदान करना है। उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं-जीवोदयनिष्पन्न
और अजीवोदयनिष्पन्न ।२४१ कर्म के उदय से जीव में होने वाले नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न एवं कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलतो हैं । जैसे औदारिकादि शरीर और औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि । ये औदारिक शरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने से अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। २३६. त.सू. २.५ २३७. त.रा.वा. २.५.३.१०६ (विस्तृत विवेचन हेतु तत्त्वार्थ टीका देखें) २३८. स.सि. २.१.२५२ २३९. त.सू. २.६ २४०. भगवती १७.१.२८ २४१. भगवती १७.१.२८
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