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है। १३५ यदि 'ज्ञान' मात्र पर प्रकाशक हो तो बाह्यस्थिति के कारण आत्मा का ज्ञान से संपर्क ही नहीं रहेगा, तब स्व को जानने का उसका स्वभाव होने पर सर्वगतभाव नहीं रहेगा! इसी प्रकार दर्शन भी मात्र अन्तः रूप को ही देखे, बाह्यस्थित पदार्थ को न देखे, यह संभव नहीं है, अतः ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला आत्मा ही स्वपर प्रकाशक है!१३६
यदि ज्ञान को मात्र पर-प्रकाशक मानें तो संपूर्ण सृष्टि चेतनमय बन जाएगी, क्योंकि ज्ञान पर-प्रकाशक होने के कारण द्रव्य से पृथक् प्रकाशक होगा, तब या तो शून्यता की आपत्ति होगी या जहाँ-जहाँ वह पहुँचेगा वे सारे द्रव्य चेतना हो जायेंगे। १३७
आत्मा न केवल ज्ञानमय है, और न केवल दर्शनमय है, अपितु, वह उभय है। जिस प्रकार अग्नि में दाहकता भी है और पाक गुण भी ! १३८
उपयोग के प्रकार :
वह ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है!१३९ ।
बृहद्र्व्य संग्रह में भी व्यवहार नय से आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन कहा गया है, परन्तु इसे सामान्य रूप से जीव का लक्षण कहा गया है। शुद्ध नय की अपेक्षा से तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन ही जीव का लक्षण हैं!१४° पञ्चास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्य ने भी ज्ञान-दर्शन के इसी संख्याभेद की पुष्टि की है तथा नामोल्लेख किये हैं-मतिज्ञान,श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान -ये ज्ञान के एवं चक्षु, अचक्षु, अवधि
और केवल ये चार दर्शन के भेद बतलाए हैं।१४१ ज्ञान के अंतिम तीन भेदों को विभाव ज्ञान भी कहते हैं । १४२ १३५. नियमसार १६१ १३६. नि.सा.ता.वृ. १६१ १३७. नियमसार १६२ १३८. नि.सा.ता.वृ. १६२ १३९. त.सू. २.९ १४०. बृ.द्र.सं.६ १४१. पं. का. ४१-४२, स. सि. २.९.२३७ १४२. नि.सा.ता.बृ. १०
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