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प्रगट हो जाता है; ज्ञानावरण आदि चारों घातीकर्मों का क्षय युगपत् होने से ज्ञान
और दर्शन में कालभेद मानना उचित नहीं है ।१५३ व्यक्त और अव्यक्त का भेद सामान्य आत्मा में होता है, परन्तु केवली आत्मा में नहीं होता । व्यक्त दर्शन और व्यक्त ज्ञान-ये दोनों केवली के लिए एकसाथ संभव हैं!१५४ यदि ऐसा न माना जाये, तो सर्वज्ञता भी क्रमवाद से खंडित हो जाएगी। सर्व जानना और सर्व देखना ही सर्वज्ञ की परिभाषा है ।१५५ ___ श्वेताम्बर परम्परा के ही आचार्य जिनभद्रसूरि के अनुसार केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ नहीं होते ।१५६ वस्तुतः यह क्रम उपयोग की अपेक्षा से कहा गया हो सकता है, जैसे किसी के स्वर्ण खचित पादुका और स्वर्णखचित आसन दोनों विभूतियाँ एक साथ स्वामित्व में हों, फिर भी वह या तो आसन ग्रहण कर सकता है या गमन कर सकता है; दोनों कार्य एक साथ न होने पर भी स्वामित्व में तो दोनों एक साथ हो सकते हैं।
दिगम्बर परम्परा में यद्यपि यह प्रचलित है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपत् होते हैं, परन्तु दिगम्बर साहित्य में ही कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिनसे यह तथ्य पुष्ट होता है कि दिगम्बर परम्परा में भी ज्ञान और दर्शन में वे क्रमवादी हैं।
गुणधराचार्य के कषायपाहुड की मूल १५-२० की गाथाओं में जिन मार्गणओं के अल्प-बहुत्व के रूप में जघन्य उत्कृष्ट काल कहा गया है, वहाँ उत्कृष्ट काल में अल्प-बहुत्व में कहा गया है- “चक्षुदर्शनोपयोग के उत्कृष्ट काल से चक्षुज्ञानोपयोग का काल दुगुना है।" उससे श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा, इन्द्रियों का ज्ञानोपयोग, मनोयोग, वचनयोग, काययोग आदि स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञानोपयोग से अवायज्ञान का उत्कृष्ट काल दुगुना है। इससे ईहा ज्ञानोपयोग का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इससे श्रुतज्ञान का, श्रुतज्ञान से श्वासोच्छ्वास का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक
१५३. वही २.६ १५४. वही २.११ १५५. वही.२.१३ १५६. विशेषावश्यक भाष्य ३०९६
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