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द्रव्यत्व या जीवत्व में सदैव स्थायी होने से नित्य है । तत्त्वार्थसूत्र में धर्म, अधर्म, आकाश और काल को निष्क्रिय बताया गया है। इससे यह भली प्रकार से अनुमान लगाया जा सकता है। कि पुद्गल और जीव सक्रिय हैं।
क्रिया की व्याख्या पूज्यपाद ने इस प्रकार की है। “अंतरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होने वाली जो पर्याय द्रव्य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने का कारण है, वह क्रिया कहलाती है। १९०यह गतिक्रिया संसारी जीवों में होती है, इसीलिए यह विभाव क्रिया कहलाती है और सिद्धों में मात्र स्वभाव क्रिया है, जो ऊर्ध्वलोक लोक की ओर ही ले जाती है जबकि संसारी जीवों की क्रिया छह दिशाओं में होती है ।१९१
द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य परिणाम युक्त सत् (नित्य) है। १९२ आत्मा द्रव्य है, अतः वह भी अन्य द्रव्यों की तरह नित्य है और परिणामी भी।
परिणामी क्या है? इसका समाधान तत्त्वार्थसूत्र में दिया गया है- द्रव्य का प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है । १९३ ___ परिणाम स्वाभाविक और प्रायोगिक दो प्रकार से होता है । ९४ जीव और पगल इनमें स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों पर्यायें (परिणमन) पायी जाती हैं।१९५ इस परिणमन की अपेक्षा जीव अनित्य है। द्रव्य की अपेक्षा नित्य व अपरिणामी एवं पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य और परिणामी है। आत्मा कर्ता और भोक्ता है (आत्मकर्तृत्व-भोक्तृत्ववाद):- :
उत्तराध्ययन में आत्मा को नानाविध कर्मों का कर्ता कहा है ।१९६ आत्मा ही उन कर्मों के फल के भोक्ता के रूप में अनेक जाति, योनि में जन्म लेता है ।१९७ १९०. स.सि. ५.७.५३९ एवं त.वा. ५.७.४४६ १९१. नि.सा.ता.वृ. १८४, ३६६ १९२. प्र.सा.८ १९३. त.सू. ५.४२ . १९४. न्यायवि.टी. १.१० १९५. भगवती १.३.७ १९६. उत्तराध्ययन ३.२ १९७. उत्तराध्ययन ३.३
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