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केवलज्ञान, केवलदर्शन और कषाय सहित जीव की शुक्ल लेश्या का उत्कृष्ट काल स्वस्थान में समान होते हुए भी प्रत्येक का उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास से विशेष अधिक है।
केवलज्ञान के उत्कृष्ट काल से एकत्व वितर्क अविचार ध्यान का उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। इनसे पृथक्त्व वित्तर्क सविचार ध्यान का काल दुगुना है। इससे प्रतिपाती सूक्ष्मसंपराय उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले का; सूक्ष्म संपराय, क्षपक संपराय का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है।
सूक्ष्म सांपरायिक जीव के उत्कृष्ट काल से मान कषाय का उत्कृष्ट काल दुगुना है। इससे क्रोध, मान, माया, लोभ, क्षुद्रभवग्रहण, कृष्टिकरण, संक्रामक का उत्कृष्ट काल क्रमशः विशेष अधिक है। इससे उपशान्त कषाय का काल दुगुना है। इससे क्षीण कषाय का, इससे चारित्र मोहनीय के उपशामक का, इससे चारित्रमोहनीय के क्षपक का काल विशेष अधिक है । १५७
इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि दर्शनोपयोग संबन्धी सभी इन्द्रियों, मन, वचन, काया, अवाय, ईहा, व श्रुतज्ञान इनका उत्कृष्ट काल श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है । केवलज्ञानोपयोग व केवलदर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल एक श्वासोच्छ्वास से अधिक और दो श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम होता है। अर्थात् इस समय तक में उपयोग बदल जाता है। अतः जहाँ केवलज्ञान व केवलदर्शन के उपयोग का समय अन्तर्मुहूर्त दिया है, वहाँ यह अन्तर्मुहूर्त से श्वासोच्छ्वास के उत्कृष्ट काल से कम ही समझें ।१५८८ __ केवलज्ञान और केवलदर्शन का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे लगता है, केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती ।१५९ ____टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इसे इन शब्दों में पुष्ट किया है-“कार्यरहित 'शुद्ध जीव' प्रदेशों से घनीभूत दर्शन और ज्ञान में अनाकार और साकार रूप से उपयोग रखने वाले होते हैं, यह सिद्धात्मा का लक्षण है ।१६०
१५७. कषायपाहुड १५-२० १५८. कुसुम अभि. ग्रन्थ-कन्हैयालाल लोढा खं. ४ पृ. २८८ १५९. कषायपाहुड पृ. ३१९ १६०. धवला २.९.५६ पृ. ९८
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