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चैतन्यात्माः
आत्मा के संबन्ध में निरंतर वैचारिक चिंतन का परिणाम आगे जाकर यह निकला कि केनोपनिषद् ने स्पष्ट कह दिया कि अन्नमय आत्मा रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही आत्मा है।६६ यही दृष्टा, श्रोता, मनन करने वाला और विज्ञाता है। इस चिदात्मा को अजर, अमर, अक्षर, अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अनन्त माना गया है।६८ इस प्रकार, सतत् चिंतन से शरीर और आत्मा की भिन्नता सिद्ध की गयी। न्याय-वैशेषिक में आत्मा:... न्याय दर्शन ने आत्मा की व्याख्या भिन्न रिति से की है।" ज्ञान, इच्छा, आदि गुणों का आधार आत्मा है।" ६९ द्वितीय परिभाषा है-“प्रतिसंधान, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान करने वाला तत्त्व ही आत्मा है।"७० ___ न्याय दर्शन आत्मा को शरीरादि से भिन्न एक स्वतन्त्र द्रव्य मानता है, ७१ परन्तु उसे जडवत् मानता है। चैतन्य जो आत्मा का स्वाभाविक गुण है, न्याय दर्शन के अनुसार वह आगन्तुक गुण है। न्याय दर्शन में आत्मा को इस चैतन्य गुण की उत्पत्ति का आधारमात्र बताया गया है।७२ .
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न, ये आत्मा के छह विशेष गुण माने गये हैं। * मुक्ति में शरीरादि का अभाव है; अतः वहाँ मुक्तात्मा में आगन्तुक चैतन्यगुण का भी अभाव है।७५
६६. केनोपनिषद् १.२ ६७. बृहदारण्य ३.७.२२ ६८. कठो. ३.२ ६९. त. सं. पृ. १२ ७०. न्यायवा. १.१.१० पृ. ६४ ७१. प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४९.५० ७२. भारतीय दर्शन-डॉ. राधाकृष्णन् भाग २ पृ. १४८, १४९ ७३. तर्कभाषा-केशिव मिश्र पृ. १९० ७४. तर्कभाषा-केशिव मिश्र पृ. १९० ७५. न्यायसूत्र १.७.२२
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