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'आत्मवाद' शब्द का प्रयोग हमें अति-प्राचीन जैन दर्शन के प्रथम अंग के रूप में स्थापित ‘आचारांग' में भी उपलब्ध होता है। आगे इसी में "आत्मा को विज्ञाता और विज्ञाता को ही आत्मा कहा है। ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा का व्यपदेश (व्यवहार) होता है।
इस सूत्र के द्वारा आत्मा की दो परिभाषाएँ स्पष्ट हुईं-प्रथम परिभाषा द्रव्याश्रित और द्वितीय गुणाश्रित है। चेतन(आत्मा) द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है। चेतन प्रत्यक्ष नहीं होता, परन्तु चैतन्य प्रत्यक्ष होता है। ..
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं तब ज्ञेय भेद से अनेकरूप परिणत हुए ज्ञान की तरह आत्मा भी अनेकरूप हो जायेगी? इस प्रश्न का समाधान भगवती' में उपलब्ध होता है । घट, पट, रथ, अश्व आदि ज्ञेयों में परिणत ज्ञान के आधार पर एक ही आत्मा को घटज्ञानी, पटज्ञानी, रथज्ञानी, अश्वज्ञानी आदि कहा जाता है। आत्मा जिस समय ज्ञान के जिस परिणमन से परिणत होती है उसी के आधार पर आत्मा का व्यपदेश अर्थात् व्यवहार होता है।
लोकराशि दो प्रकार की मानी है-जीव राशि और अजीव राशि। और लोक में शाश्वत क्या हैं? इस प्रश्न का समाधान दिया गया है कि जीव और अजीव दोनों शाश्वत हैं। . अजीव का अपना स्वंतत्र महत्त्व नहीं है उसका महत्त्व जीव के कारण ही है, क्योंकि अजीव स्वयं भोक्ता नहीं है, अपितु जीव ही सजीव का भोक्ता हैं। यदि जीव न रहे तो सृष्टि का कोई मूल्य नहीं है, पर ऐसा समय संभव नहीं है कि सृष्टि जीव रहित कभी हो भी।
१. से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई-आचारांग १.१.५ २.जे आया से विण्णया, जे विण्णाया से आया जेण विजाणाति से आया-आचारांग ५.५.१०४ ३. भगवती ६.१७४ ४. दो रासी पण्णता तं जहा जीवरासी चेव अजीवरासी चेव - ठाणं २.३९२ ५. के सासया लोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव - ठाणं २.४१९ ६. भगवती २५.४.४
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