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सर्वगत नहीं है। लोकाकाश के प्रदेश के बराबर भिन्न-भिन्न कालाणुओं की विवक्षा से कालद्रव्य लोक में सर्वगत है । १२८
कारण और अकारण की अपेक्षा:
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पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल व्यवहार नय से जीब के शरीर, वाणी, मन, प्राण, उच्छ्वास, गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तनारूप कार्य करते . हैं, अतः कारण है। जीव-जीव का तो गुरु-शिष्य रूप में उपकार करते हैं, परन्तु अन्य पाँचों द्रव्यों का कुछ भी नहीं करते, अतः अकारण है । १२९
कर्ता और भोक्ता की अपेक्षा:
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से जीव यद्यपि बन्ध-मोक्ष, द्रव्य-भावरूप पुण्य-पाप और घट-पटादि का अकर्ता है तो भी अशुद्ध निश्चय से शुभ और अशुभ के उपयोग में परिणमित होकर पुण्य-पाप का कर्ता और उनके फल का भोक्ता बनता है। विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावी शुद्ध आत्मद्रव्य के सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और अनुष्ठान रूप शुद्धोपयोग से परिणमित होकर मोक्ष का भी कर्ता और उसका भोक्ता बनता है । अवशिष्ट पाँचों का अपने-अपने परिणाम से जो परिणमन है वही कर्तृत्व है, पुण्य पाप की अपेक्षा तो अकर्तृत्व ही है । १३० उपादान और निमित्त कारण की अपेक्षा:
कार्य की उत्पत्ति में उपादान और निमित्त का क्या स्वरूप है, इस संबंध में चर्चा किये बिना द्रव्य के स्वरूप को समझने में अपूर्णता ही रहेगी। जैसे घट में, घट का उपादान कारण मिट्टी है और निमित्त कारण कुम्हार है ।
जो द्रव्य तीनों कालों में अपने रूप का कथंचित् त्याग और कथंचित् त्याग न करता हुआ पूर्वरूप से और अपूर्वरूप से विद्यमान रहता है वही उपादान कारण होता है । १३१
द्रव्य का न सामान्य (शाश्वत) अंश और न विशेष (क्षणिक) अंश उपादान होता है, परन्तु कथंचित् अशाश्वत और कथंचित् शाश्वत ही द्रव्य का उपादान १२८. वही
१२९. वही
१३०. बृहद् द्रव्य संग्रह के प्रथम अधिकार की चूलिका
१३१. त्याक्तात्यक्तात्मकरूपं उपादानमिति स्मृतम् अष्टम्. पृ. १० में उद्धृत
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