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अनेक हैं।१२२ वसुनन्दि ने जीव और पुद्गल की तरह व्यवहार काल को भी अनेक रूप माना है ।१२३ परिणामी और नित्य की अपेक्षाः
स्वभाव तथा विभाव परिणामों से जीव तथा पुद्गल परिणामी हैं, शेष चार द्रव्य विभावव्यञ्जन पर्याय के अभाव की मुख्यता से अपरिणामी हैं । १२४ सप्रदेशी और अप्रदेशी की अपेक्षाः
लोकप्रमाण मात्र असंख्यप्रदेशयुक्त जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल सप्रदेशी हैं, काल अप्रदेशी है, क्योंकि उसमें कायत्व नहीं है ।१२५ .
इन धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव को प्रदेशों के समूहयुक्त होने के कारण ही अस्तिकाय कहते हैं। काल में प्रदेशों का अभाव है, अतः नास्तिकाय है ।२६ इसे अप्रदेशी भी कहते हैं। क्षेत्रवान् एवं अक्षेत्रवान् की अपेक्षाः ___ सभी द्रव्यों को अवकाश देने के कारण मात्र आकाश ही क्षेत्रवान् है, अन्य पाँचों अक्षेत्रवान् हैं । १२० सर्वगत एवं असर्वगत की अपेक्षाः___ लोक और अलोक में व्याप्त होने की अपेक्षा से आकाश को सर्वगत कहा जाता है । लोकाकाश में व्याप्त होने के कारण धर्म और अधर्म भी सर्वगत हैं । एक जीव की अपेक्षा से जीव असर्वगत है, परन्तु लोकपूरण समुद्घात की अवस्था में एक जीव की अपेक्षा से सर्वगत है। भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा तो सर्वगत होता ही है। पुद्गलद्रव्य लोकव्यापक महास्कंध की अपेक्षा से सर्वगत है ही, शेष पुद्गलो की अपेक्षा से असर्वगत है । कालद्रव्य भी एक कालाणुद्रव्य की अपेक्षा से
१२२. धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं च.....मेकद्रव्यत्वम् । - रा.वा. ५.६.६.४४५ १२३. धम्माधम्मागासा.... ववहारकालपुग्गलजीवा हु. अणेयरुवति - वसु. श्रा. ३० १२४. बृ.द.स. अधिकार प्रथम की चूलिका द्वय १२५. बृ.द.स. अधिकार की चूलिका १.२ १२६. पं. का. टी. २२ बृहद् द्र.स. १ की चूलिका १.२ १२७. बृ.द्र.स. अधिकार १ की चूलिका १.२
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