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हैं- भेदरूप होने से ये भी अविद्यात्मक हैं, परन्तु इनसे चूँकि विद्या की उत्पत्ति संभव है। जैसे धूल युक्त पानी को स्वयं धूलमय होते हुए भी कतक के फल का चूर्ण स्वच्छ कर देता है; विष को विष समाप्त कर देता है, उसी प्रकार श्रवण आदि भेदरूप अविद्या होते हुए भी मोह, राग, द्वेष, आदि मूल अविद्या को नष्ट कर स्वगतभेद की शान्ति से निर्विकल्प स्वरूप को प्राप्त होती है।३८ । ... संपूर्ण संसार ब्रह्म का ही विवर्त है, पर लोग ब्रह्म को न देखकर उसके विवर्त को ही देखते हैं, ३९ जबकि यह मिथ्या है, क्योंकि यह प्रतीति का विषय है और जो भी प्रतीति के विषय हैं, वे मिथ्या हैं, जैसे-'सीप' में 'चाँदी' का विवर्त । ___ जिस सृष्टि को मायामात्र कहकर ब्रह्माद्वैतवादी ‘ब्रह्म' को ही सत् मानकर अद्वैत सिद्ध करते हैं, वह 'माया' सत् है या असत्? अगर माया को सत् माने तो अद्वैत नहीं रहेगा आर असत् माने तो तीनों लोकों के पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहें कि माया 'माया' (अनिवर्चनीय-असत्) होकर अर्थक्रिया करती है, तो उसी प्रकार विरोधाभास होगा जैसे यह कहना कि एक स्त्री मां होकर भी बांझ है।४९ जैन दर्शन समन्वय करता है:- जैन दर्शन का दृष्टिकोण आपेक्षिक रहा है । वह एकान्त से न भेद मानता है और न अभेद । उसकी मान्यता है-जो द्रव्य है वह गुण या पर्याय नहीं, और जो गुण या पर्याय है वह द्रव्य नहीं। गुण और गुणी से भेद न करें तो द्रव्य का लक्षण संभव नहीं है। द्वैत के अभाव में अद्वैत की सिद्धि संभव ही नहीं है। "
३८. यथा पयो पयोन्तरं जययति स्वयं च जीर्यतिः, यथा विषं विषांतरं शमयति स्वयं च साम्यति,
यथा च कतकरजो रजोन्तराविले पयसि प्रक्षिप्तं रजोन्तराणि भिंदत् स्ययमपि भिद्यमानमनावलिं पयः करोति एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति । - . ब्रह्मसू. शा.भा.भा. पृष्ठ ३२. ३९. सर्वं वै खल्विदं.....तत्पश्यति कश्चन-छान्दोग्य उ. १४ ४०. स्याद्वादमंजरी १३.११२. ४१. माया सती चेद्....वन्ध्या च भेवत् परेषाम् । - अन्ययो. १३. ४२. तेषामेव गुणानां तैः प्रदेशः विषिष्टा भिन्न.....-प्र.सा.त.प्र.१३० ४३. षट्खण्डागम, धवला टीका, ३.१.२.६३ .
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