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होता है।७५ ___अन्वय को साधर्म्य और व्यतिरेक को वैधर्म्य कहते हैं । हेतु के होने पर साध्य का होना अन्यव है। हेतु के अभाव में साध्य का नहीं होना व्यतिरेक है। पर्वत में अग्नि है, धूम होने से।' यहाँ धूम हेतु है और अग्नि साध्य है, जहाँ वह्नि नहीं होती वहाँ धुंआ भी नहीं होता, यह व्यतिरेक है। ___ यद्यपि न्याय दर्शन कुछ हेतुओं को केवल अन्वयी और कुछ हेतुओं को केवल व्यतिरेकी मानता है, पर जैन न्याय के अनुसार सूक्ष्मता से देखा जाये तो कोई भी हेतु न केवल अन्वयी होता है और न केवल व्यतिरेकी। ___ बौद्ध तत्त्व (स्वलक्षण) को सर्वथा अवाच्य मानते हैं। उसमें विधि निषेध रूप व्यवहार सर्वथा संवृति (कल्पना) से होता है।
वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है:
द्रव्य एक भी है और अनेक भी। सामान्य की अपेक्षा एक है और विशेष की अपेक्षा अनेक हैं । सामान्य सत्ता सभी पदार्थों में समान रूप से रहती है। विशेष सत्ता सभी पदार्थों की भिन्न-भिन्न है। घट की सत्ता से पट की सत्ता भिन्न है। इस सामान्य सत्ता और विशेष सत्ता को तो ‘पदार्थ की आत्मा' तक कह दिया गया
हेमचन्द्राचार्य ने भी इसी मान्यता की पुष्टि की है कि “समस्त पदार्थ सामान्य की अपेक्षा अनेक होकर भी एक हैं और एक होकर भी विशेष की अपेक्षा अनेक
अद्वैतवादी, मीमांसक और सांख्य सामान्य को सत् रूप में स्वीकार करते हैं, बौद्ध विशेष को ही सत् मानते हैं, न्याय-वैशेषिक सामान्य और विशेष को निरपेक्ष और भिन्न-भिन्न मानते हैं। ७८
७५. "अस्तित्वं......भेदाविवक्षया"-आ.मी. १.१७ ७६. सामान्यविशेषात्मा तदर्थों विषयः ।-परीक्षामुख ४.१ ७७. अन्ययो. व्य. १४ एवं आ. मी. २.३४ ७८. स्याद्वामंजरी १४.१२०
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