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में ही अर्थक्रिया पायी जाती है जैसे बहिरंग और अन्तरंग कारणों से ही कार्य की निष्पत्ति होती है, इनके बिना नहीं।८५
इस प्रकार जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार समस्त वस्तुओं में प्रतिपक्षी (विरोधी) धर्म पाया जाता है।६ लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है, इसका समर्थन ठाणांग भी करता है। ... अनन्तधर्मात्मक वस्तु ही कार्य कर सकती है, इसकी पुष्टि स्वामी कार्तिकेय भी करते हैं। जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है वही नियम से कार्यकारी होती है। एकान्तरूप द्रव्य कार्यक्षम नहीं हो सकता; और जो कार्यक्षम नहीं होता उसे द्रव्य नहीं कह सकते, क्योंकि परिणमन रहित नित्य द्रव्य न विनाश को प्राप्त होता है
और न उत्पाद को, फिर वह कार्य कैसे करता है, और जो क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त होता है वह भी अन्वयी द्रव्य से रहित होने के कारण कार्यकारी नहीं हो सकता।
नय का स्वरूप और उसकी व्याख्या:- . .. जब तक हम नयवाद की चर्चा नहीं करेंगे, हमारा विवेचन अधूरा रहेगा। संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति के दो आधार माने गये हैं- प्रमाण और नय । अनेकधर्मात्मक वस्तु को अखंड रूप से ग्रहण करना प्रमाण है। इसे सकलादेश भी कहते हैं।'
नय वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करता है, साथ ही दूसरे नय की विवक्षा रखता है। दुर्नय एक धर्म को ग्रहण करके अन्य धर्मों का निराकरण करता है।९१
८५. एवं विधिनिषेधा....रुपाधिभिः - आ.मी. १.२१ ८६. एवं सप्रतिपक्षे सर्वस्मिन्नेव वस्तुत्वेस्मिन् । उद्धृतेयं स्याद्वादरत्नाकर ५.८८.३४ ८७. ठाणं २.१ . ८८. जं वत्थु अणेयंत....दीसए लोए “एयतं पुण दव्वं केरिस दव" विहीणं....
कहं कुणइपजयभित्तं तच्चं..... किंपि साहदि। - क्रा.प्रे. २२५.२८ ८९. प्रमाणनयैरधिगमः।- त.सू. १.६ ९०. तथा चोक्तं सकामोदेशः प्रमाणाधीनः । - स. सि. १.६ ९१. अनेकस्यानेकरूपा, धी. प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः ।
अष्टशती में उद्धृत पृ. ३५
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